Vikrant Shekhawat : Sep 28, 2023, 08:12 AM
Bhagat Singh Birth Anniversary: गांधी वापस जाओ’ के नारों का शोर था. गुस्से से भरे नौजवान उन्हें काले झंडे दिखा रहे थे. भगत सिंह -सुखदेव-राजगुरु अमर रहें की हुंकार के साथ फांसी के फंदे से उन्हें न बचाने का वे गांधी पर आरोप लगा रहे थे. नाराजगी चरम पर थी. कांग्रेस के कराची सम्मेलन का यह मंजर था. सम्मेलन के तीन दिन पहले 23 मार्च 1931 की शाम लाहौर जेल में सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई थी.महात्मा गांधी ने अपनी बात कही, “कोई संदेह नही होना चाहिए कि मैंने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाना नही चाहा. मैंने भरसक प्रयास किए. लेकिन मैं चाहता हूं कि आप उनकी गलती महसूस करें. उनका रास्ता गलत और निरर्थक था. मैं पिता जैसे अधिकार के साथ नौजवानों को बताना चाहता हूं कि हिंसा सिर्फ नारकीय यातना लाती है.”बोस चाहते थे गांधी -इरविन पैक्ट में रखी जाए फांसी रद्द करने की शर्तफांसी के पहले और फिर बाद में भी महात्मा गांधी पर बार-बार सवाल उठते रहे. कांग्रेस के भीतर-बाहर और जनता के एक बड़े हिस्से की ओर से यह शिकायत होती रही कि गांधी अकेले व्यक्ति थे, जिनका प्रभाव इस फांसी को रोक सकता था. सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई में नौजवानों ने मांग की थी कि वायसराय इरविन से समझौते की शर्त में भगत सिंह, सुखदेव, राज गुरु की फांसी के फैसले की वापसी जोड़ी जाए. बोस का कहना था, “अगर वायसराय तैयार न हों तो वार्ता ही न की जाए या फिर समझौता तोड़ दिया जाए.”क्या गांधी की कोशिशें थीं आधी-अधूरी?17 फरवरी 1931 से शुरू गांधी-इरविन वार्ता 5 मार्च तक चली. 18 फरवरी को गांधी ने इरविन से कहा, “इसका हमारी वार्ता से कोई सम्बन्ध नही है. आपको अनुचित भी लग सकता है. लेकिन वर्तमान माहौल को आप बेहतर बनाना चाहते हैं, तो भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को आपको टाल देना चाहिए.” महात्मा गांधी के मुताबिक, “वायसराय ने मसले को इस तरीके से उठाने पर खुशी जाहिर की. कहा कि सजा को बदला जाना तो मुश्किल है. लेकिन उसे टाले जाने पर विचार किया जा सकता है.”इरविन ने उसी दिन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को लिखा,”यद्यपि गांधी हमेशा से फांसी की सजा के विरोधी रहे हैं लेकिन उन्होंने सजा टाले जाने पर ही जोर दिया. उनका कहना था कि फांसी से अमन-चैन पर असर पड़ेगा.” राष्ट्रपिता ने दूसरी बार इरविन के सामने इस मसले को 19 मार्च 1931 को उठाया. कराची के कांग्रेस अधिवेशन के पहले समझौते के नोटिफिकेशन के सिलसिले में यह मुलाकात थी. मुलाकात खत्म होने के बाद बाहर निकलते समय उन्होंने इरविन से कहा,” मैंने अखबारों में 24 मार्च को फांसी देने की तारीख देखी है.”इरविन का जबाब था,” मैंने मामले को सावधानी के साथ देखा. लेकिन फांसी को उम्र कैद में बदलने की कोई वजह नही पायी. कांग्रेस के अधिवेशन तक इसे मुल्तवी रखने को सोचा. लेकिन इसे मुनासिब नही समझा, क्योंकि एक बार जब फांसी की सजा सुना दी गई, तो राजनीतिक नजरिये से टालना अनुचित होगा. इसे टालना इसलिए भी अमानवीय होगा, क्योंकि दोस्त-परिजन समझेंगे कि मैं सजा बदलने पर विचार कर रहा हूं. इससे बाद कांग्रेस को भी कहने का मौका मिलेगा कि वह सरकार की चालबाजी की शिकार हुई.”महात्मा गांधी की वो आखिरी अपील20 मार्च 1931 को गांधी की होम सेक्रेटरी हर्बर्ट एमर्सन से इस मसले पर लम्बी बातचीत हुई. मुलाकात में कांग्रेस के अधिवेशन के पहले या फिर बाद में, दोनो ही मौकों पर फांसी दिए जाने पर होने वाली कठिनाई महसूस की गई. महात्मा गांधी ने 21 और 22 मार्च को इरविन से फिर भेंट की. आखिरी भेंट में विचार की कुछ उम्मीद दिखने पर 23 मार्च 1931 की सुबह उन्होंने इरविन को एक पत्र में लिखा, “आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने जैसा लगता है, पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है. यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और दो अन्य लोगों की मौत की सजा में रियायत दिए जाने की कोई आशा नही हूं, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था. डॉक्टर सप्रू मुझसे कल मिले थे और उन्होंने मुझे बताया था कि आप इस मसले पर चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने पर विचार कर रहे हैं.यदि इस पर पुनः विचार की गुंजाइश है, तो आपको ध्यान दिलाना चाहता हूं कि जनमत सही हो या गलत, वो सजा में रियायत चाहता है. जब कोई सिद्धान्त दांव पर न हो, तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है. प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी होती है. यदि सजा हल्की हो जाती है तो बहुत संभव है कि आंतरिक शांति स्थापना में सहायता मिले. यदि मौत की सजा दी गई तो निःसंदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी. चूंकि आप शांति स्थापना के लिए मेरे प्रभाव को, जैसा भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं. इसलिए अकारण ही भविष्य के लिए मेरी स्थिति और कठिन न बनाइये. यूं भी वह कुछ सरल नही है.”गांधी क्यों थे मजबूर ?महात्मा गांधी ने खुद या समर्थकों ने अलग-अलग मौकों पर भगत सिंह और साथियों के मुकदमे और फिर फांसी के सवाल पर उनकी कोशिशों का जिक्र किया. 4 मई 1930 को उन्होंने इस मुकदमे की सुनवाई के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल के गठन का विरोध किया था. 31 जनवरी 1931 को उन्होंने इलाहाबाद में कहा, “मेरा निजी धर्म कहता है कि जिन्हें फांसी की सजा मिली है, उन्हें फांसी पर न लटकाया जाए. यहां तक कि जेल में भी न रखा जाए. लेकिन यह मेरी निजी राय है. हम उनकी रिहाई की शर्त नही रख सकते.”7 मार्च 1931 को एक जनसभा में महात्मा गांधी ने कहा कि भगत सिंह जैसे बहादुर हों या अन्य, वह किसी को भी फांसी पर लटकाए जाने के विरोधी हैं. इरविन से वार्ता और समझौते में इस मसले को शर्त के तौर पर शामिल न किए जाने पर बापू का कहना था, कि उनकी राय से कांग्रेस की वर्किंग कमेटी सहमत थी और वह वर्किंग कमेटी के फैसले से बंधे थे. सजा रद्द या बदलाव की जगह फांसी टाले जाने के सवाल पर उनका पक्ष था,”कांग्रेस नेताओं ने और तेज बहादुर सप्रू जैसे कानूनविद ने फैसले के कानूनी पक्ष को बखूबी समझा था. प्रिवी काउंसिल के फैसले के बाद वायसराय के स्तर से माफी या सजा में बदलाव की कोई उम्मीद नही पायी गई. इसलिए फांसी टालना बेहतर रास्ता था. ताकि अनुकूल समय आने पर कोई रास्ता निकल सके.” उन्होंने 29 अप्रैल 1931 को सी विजयाराघवाचारी को लिखा,” सजा की वैधता पर तेज बहादुर सप्रू ने वायसराय के साथ विचार किया. आप उनका प्रभाव जानते हैं, लेकिन कोई नतीजा नही निकला.”फांसी क्यों? हम युद्धबंदी! मार दो गोली..बड़ा सवाल है कि क्या सरदार भगत सिंह और सुखदेव, राजगुरु को फांसी से बचने के लिए कोई शर्त कुबूल होती? सेंट्रल एसेम्बली में बम फोड़ने के बाद भगत सिंह ने भागने की जगह गिरफ्तारी दी. अदालती कार्यवाही का बहिष्कार किया. सांडर्स की हत्या की सीधे जिम्मेदारी ली और इसके कारण बताए. महात्मा गांधी अगर उनके रास्ते को अनुचित मानते थे तो भगत सिंह भी अहिंसा के रास्ते आजादी की उम्मीद नहीं करते थे. क्या उन्हें गांधी की सहायता से अपनी जिंदगी बचाना कुबूल होता ? बलिदान के लिए खुशी-खुशी तैयार भगत सिंह ने पिता सरदार किशन सिंह को प्रिवी काउंसिल में अपील से रोका था. मां विद्यावती ने उनकी गैर जानकारी में वायसराय के यहां फांसी रद्द करने की दरखास्त दी.सजा टालने की कोशिशों से सरदार भगत सिंह बेचैन थे. मौत के मुहाने खड़े भगत सिंह क्या चाहते थे, यह बताता है उनका 20 मार्च 1931 का पंजाब के गवर्नर को लिखा ख़त. उसका है यह अंश,” जहां तक हमारे भाग्य का सवाल है, मैं यह कहने की आज्ञा चाहता हूं कि जब तुमने हमे मौत के घाट उतारने का फैसला कर लिया है तो तुम यकीनन ऐसा ही करोगे. तुम्हारे हाथ में शक्ति है और संसार में शक्ति ही सबसे बड़ा औचित्य है. हम जानते हैं कि जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत ही तुम्हारा मार्ग निर्देशन करती है. हमारा पूरा अभियोग इसका प्रमाण है.यहां हम कहना चाहते हैं कि तुम्हारे न्यायालय के कथनानुसार हमने एक युद्ध का संचालन किया , इसलिए हम युद्ध बन्दी हैं और हम कहते हैं कि हमारे साथ वैसा ही व्यवहार हो अर्थात हम कहते हैं कि कि हमे फांसी चढ़ाने की जगह गोली मार दी जाए. “सरदार भगत सिंह को यकीन था कि उनकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी. वे मर कर भी अपने विचारों के जरिए जिंदा रहेंगे. इसीलिए तो अपने भाई कुलतार सिंह को आखिरी ख़त में लिखा था,
- कोई दम का मेहमां हूं, अहले महफ़िल
- चरागे सहर हूं बुझा चाहता हूं.
- मेरी हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली
- यह मुशते खाक है फानी न रहे.