विशेष / हिन्दी दिवस पर क्रान्तिकारी भगतसिंह को याद किया जाना चाहिए?

देशभर में आज हिन्दी दिवस का बुखार है। हिन्दी हमारी राष्ट्रीय भाषा हो या नहीं हो। दोनों ही पक्ष मुखर है। परन्तु हमें आज भगतसिंह को याद करना चाहिए। शीर्षक पढ़कर प्रथम दृष्टया आपका सोचना शायद यह है कि भगतसिंह को आज क्यों याद किया जाए? इंकलाब जिन्दाबाद! कहने वाला भगतसिंह का इससे क्या नाता? परन्तु भगतसिंह वो शख्स थे, जिन्होंने इस देश में एक भाषा के मुद्दे पर ऐसा विचार दिया, जो आज क्रियान्वित हो जाए तो यह समस्या ...

Vikrant Shekhawat : Sep 14, 2019, 04:46 PM
देशभर में आज हिन्दी दिवस का बुखार है। हिन्दी हमारी राष्ट्रीय भाषा हो या नहीं हो। दोनों ही पक्ष मुखर है। परन्तु हमें आज भगतसिंह को याद करना चाहिए। शीर्षक पढ़कर प्रथम दृष्टया आपका सोचना शायद यह है कि भगतसिंह को आज क्यों याद किया जाए? इंकलाब जिन्दाबाद! कहने वाला भगतसिंह का इससे क्या नाता? परन्तु भगतसिंह वो शख्स थे, जिन्होंने इस देश में एक भाषा के मुद्दे पर ऐसा विचार दिया, जो आज क्रियान्वित हो जाए तो यह समस्या पूरी नहीं तो बड़े हद तक सुलझ सकती है।

17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर 'मतवाला' नाम के कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर 50 रुपए का प्रथम पुरस्कार मिला था। भगतसिंह ने 1924 में लिखा था कि पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए। 

उनका यह सुझाव यदि लागू होता है तो यकीन मानिए कि देशभर की भाषाओं को समझना आसान हो जाएगा। अलग—अलग लिपि होने के चलते हम भाषाओं को पढ़ नहीं पाते। वहीं यदि मोबाइल में लिखी जाने वाली हिंग्लिश के उपयोग को देखें तो समझ आएगा कि हिंग्लिश लिपि का उपयोग प्रत्येक भाषा का व्यक्ति कर लेता है। चूंकि देवनागरी वैज्ञानिक लिपि है। इसलिए उसमें लिखना प्रत्येक भाषा के लिए आसान है। अभी मराठी, हिन्दी और नेपाली इसी लिपि का उपयोग करती है। भगतसिंह का 95 साल पुराना विचार प्रासांगिक है और इस पर काम होना ही चाहिए। यदि ऐसा होता है तो पूरे देश में भाषा की वजह से नहीं हो पाने वाले संवाद की समस्या सरल हो जाएगी। 

देखा जाए तो भगतसिंह की उम्र व्यक्ति भारतीय राजनीति का धूमकेतु आज तक नहीं बन पाया है। मात्र चौबीस साल की उम्र पाने वाले भगतसिंह सभी को पीछे छोड़ते हैं। पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है। इस उज्जवल चेहरे की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो उनके नाम का झंडा उठाए घूमते हैं। 

कई राज्य शुरू से हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने के विरोध में है। समय के साथ यह मुखर ही हुआ है। देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने और नहीं बनाने के समर्थन—विरोध के बीच हमें एक राष्ट्रीय लिपि निर्धारित करनी चाहिए। 

यह आज तक हिन्दी के किसी भी लेखक-सम्मेलन ने ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया है। आज तक हिन्दी के किसी भी बड़े लेखकीय सम्मेलन में भगतसिंह के इस बड़े इरादे को लेकर कोई धन्यवाद प्रस्ताव तक पारित नहीं किया गया है। उनकी इस स्मृति में भाषायी समरसता का कोई पुरस्कार स्थापित नहीं किया गया। इसके बाद भी हम भगतसिंह का शहादत दिवस मनाते हैं। भगतसिंह की जय बोलते हैं। हम उनके रास्ते पर चलना नहीं चाहते। मैं तो लोहिया के शब्दों में कहूंगा कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से भी मुझे शिकायत है कि आपको नोबेल पुरस्कार भले मिल गया हो। लेकिन 'गीतांजलि' तो आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी। एक कवि को अपनी मातृभाषा में रचना करने का अधिकार है लेकिन भारत के पाठकों को, भारत के नागरिकों को, खड़े होकर यह भी कहने का अधिकार है कि आप हमारे सबसे बड़े बौद्धिक नेता हैं. लेकिन भारत की देवनागरी लिपि में लिखने में आपको क्या दिक्कत होती। किसी भी लिपि में लिखने से भाव नहीं बदलते हैं। क्योंकि लिपि भाव नहीं जगाती। भाषा भाव जगाती है। जैसे हम देवनागरी में केम छो लिखते हैं तो भाव नहीं बदलते। उसमें शब्दों के तर्जमे नहीं ढूंढे जाएंगे। शब्द वही रहेंगे तो भाव कैसे बदलेंगे। हम मोबाइल व इन्टरनेट पर यह लिख ही रहे हैं। 'खूब भालो!' कोई लिखेगा तो आपको अहसास हो जाएगा कि बंगाली है। परन्तु इसे बंगाली की लिपि में 'খুব ভাল' लिखेंगे तो समझ नहीं आएगा। देवनागरी में 'तमे केम छो' लिखने पर समझ में जा आएगा वह भी अपने भावों सहित। परन्तु 'તમે કેમ છો' लिखने पर बाकी भारतीय पढ़ ही नहीं पाएंगे। 

लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत की जानी चाहिए कि 'हिन्द स्वराज' नाम की आपने अमर कृति 1909 में लिखी वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी। लेकिन उसे आप देवनागरी लिपि में भी लिख सकते थे। जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके। जो काम हिन्दी के लेखक ठीक से करते नहीं हैं। उस पर साहसपूर्वक बात तक नहीं करते हैं। सन् 2019 में भी बात नहीं करते हैं। भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी है। उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से अज्ञान बने हैं। फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है।

इसे ऐसे भी समझें 
बंगाली में আবদুল কালাম রাস্তা
गुजराती में અબ્દુલ કલામ માર્ગ
तेलगू में అబ్దుల్ కలాం మార్గ్
कन्नड़ में ಅಬ್ದುಲ್ ಕಲಾಂ ಮಾರ್ಗ
तमिल में அப்துல் கலாம் மார்க்

हम इन भाषी राज्यों में इसे पढ़कर नहीं समझ पाएंगे। परन्तु देवनागरी में इसे 'अब्दुल कलाम मार्ग' ही लिखा जाएगा इस पर जरूर विचार किया जाना चाहिए कि पूरा देश एक लिपि की वजह से कैसे जुड़ सकता है।