राजवंश और कच्छवाह वंश की कुलदेवी जमवाय माता जयपुर से लगभग 35 किलोमीटर दूर पूर्व में जमवा रामगढ़ की पहाड़ियों की घाटी में विराजमान हैं.
हरियाली की गोद में पहाड़ियों के बीच जमवाय माता का मंदिर है. इनका पौराणिक नाम जामवन्ति है. इस मंदिर की स्थापना कच्छवाह वंश के राजा दूलहराय ने की थी.
कहा जाता है पहले इस इलाके का नाम मांच था और चौकीदार मीणों का यहां शासन था. दूलहराय से उनका युद्ध हुआ जिसमें दूलहराय को पराजय का सामना करना पड़ा और वह बेहोश हो गया था. बेहोश अवस्था में उन्हें जमवा माता ने दर्शन दिए और कहा कि मीणा शासक उनके मंदिर में तामसी भोग अर्पित करते हैं. उसे रोककर आपको मीठे का भोग शुरू करवाना पड़ेगा और मंदिर का जीर्णोद्धार करवाना पड़ेगा, तो वह मीणों से युद्ध जीत जीएंगे. साथ ही जीवनदान मिलेगा और हुआ भी यही.
राजा दूलहराय युद्ध जीत गए और तामसी भोग बन्द हुआ. उन्हें मीठी लापसी (मीठे दलिया ) का भोग अर्पित किया जाने लगा. मांच का नाम बदलकर अब इसका नाम जमवा रामगढ़ रख दिया गया.
ये वही मंदिर है जिसे अपनी आराध्य और कुलदेवी मानकर कच्छवाह वंश ने सैंकड़ों सालों तक आम्बेर पर शासन किया और जयपुर बसाया. मंदिर में नारियल की भेट चढ़ाना शुभ माना जाता है और आज भी कच्छवाह वंश के लोग यहां बच्चों का मुण्डन और विवाह के बाद जोड़े की ढोक लगाने आते हैं.
यूं तो अब राजस्थान में अब जमवाय माता के कई छोटे और बड़े मंदिर हैं, लेकिन सबसे प्रचीन और पहला मंदिर जमवा रामगढ़ का मंदिर ही है जो रामगढ़ बांध से कुछ ही दूरी पर बना है. नवरात्रा में यहां श्रद्धालुओं का हजूम देखने को मिलता है. भक्त जयकारे लगाते हुए पैदल यात्रा के रूप में भारी संख्या में यहां अपनी हाजरी लगाने आते हैं.
भले ही जमवाय माता कच्छवाह वंश की कुल माता हैं, लेकिन अन्य वंश और जातियां भी आदि भवानी इस शक्ति के दरबार में दण्वत करने आते हैं और श्रद्धा सबूरी अर्पित करते हैं.