पुण्यतिथि विशेष / चन्द्रशेखर भीड़ में अकेले | वह प्रधानमंत्री जिसने देश को कंगाल होने से बचाया

आज भारत के नौंवें प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की पुण्यतिथि हैं। 2007 में आज ही के दिन वे दुनिया से रुखसत हो गए। परन्तु राजनीति का युवा तुर्क भारतीय लोकतंत्र में ऐसे प्रतिमान स्थापित कर ​गया कि आज कोई उनके आसपास भी नहीं फटक रहा। चन्द्रशेखर जी के न रहने पर आर्थिक टीकाकार जयतीरथ राव ने लिखा कि देश उदारीकरण के बाद आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देख रहा है। चन्द्रशेखर जी ने अर्थसंकट से बचाया न होता तो देश कंगाल हो गया होता।

Vikrant Shekhawat : Jul 08, 2020, 11:25 AM

आज भारत के नौंवें प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की पुण्यतिथि हैं। 2007 में आज ही के दिन वे दुनिया से रुखसत हो गए। परन्तु राजनीति का युवा तुर्क भारतीय लोकतंत्र में ऐसे प्रतिमान स्थापित कर ​गया कि आज कोई उनके आसपास भी नहीं फटक रहा। ग्लोबल इकानामी के इस दौर में राजनीतिक संस्कृति बदल गयी है, भारत में हालांकि राजीव गाँधी युग के अवतरण के साथ ही राजनीतिक संस्कृति बदलने लगी थी, ‘पालिटिक्स के कारपोरेटाइजेशन’ (काॅरपोरेट हाउसों की तर्ज पर विकसित कारपोरेट पालिटिकल कल्चर, जिसमें नेताओं, कार्यकर्ताओं के बीच अफसर-मालिक व मजदूर का रिश्ता होता है) के इस युग में चन्द्रशेखर अकेले थे। जो हजारों कार्यकर्ताओं को सीधे जानते थे, उनके बीच रहते थे। उनसे जीवंत संवाद रखते थे। वह चाहे एसपीजी के घेरे में रहे हों या बाद में बगैर एसपीजी के, उनके आसपास कार्यकर्ता-सामान्य लोगों की भीड़ मिलती थी, वह डाटेंगे, फटकारेंगे, आजिज आ जायेंगे, पर रहेंगे उन्हीं के बीच। वह मूलतः संवेदनशील थे, पर उनकी राजनीति, भावनाओं के प्रवाह में कभी नहीं बही।

वह आचार्य नरेन्द्र देव के साथ रहे, जे.पी. से उनका सानिध्य रहा, इन्दिरा जी से सौहार्दपूर्ण रिश्ते रहे, पर कभी भी इन महान नेताओं को भी सूरज, चांद या विवेकानंद (कानपुर में प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उनके तत्कालीन वित्त मंत्री वी.पी. सिंह ने इन्हीं उपमाओं से विभूषित किया था, संजय गाँधी भी दिग्गजों द्वारा ऐसे ही विशेषणों से पुकारे गये) उन्होंने नहीं कहा। संवेदना के साथ विवेक। वह किसी चीज में यकीन नहीं करते थे, तो स्पष्ट कहते थे, सार्वजनिक तौर पर उनकी निजी मान्यताओं और सार्वजनिक स्टैंडों में फर्क नहीं था, जो इन दिनों भारतीय राजनीति की खासियत बन गयी है। उनके पहले एक प्रधानमंत्री बने। गांधी की तरह नंगे बदन तस्वीर खिंचवायी, वह प्रचारित की गयी, फकीर कहे गये, पर प्रधानमंत्री पद की शपथ के ठीक पहले की रात, विशेष शेरवानी-अचकन और कपड़े सिले गये, विशेष दर्जी से। चन्द्रशेखर ने शपथ ली, तो वही कुरता, बंडी और चप्पल, तब मधु लिमये ने 1990 में चन्द्रशेखर के इस वेषभूषा न बदलने पर सार्थक टिप्पणी की, यह महज कपड़े के बदलाव का मामला नहीं था।

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इससे एक व्यक्ति की जीवन शैली, चिंतन और व्यक्तित्व की झलक मिलती है। प्रधानमंत्री बनने के बाद चन्द्रशेखर: भीड़ में अकेले! चन्द्रशेखर ने कहा कि वह सामान्य यात्री की तरह यात्रा करेंगे, इस घोषणा के बाद, वह सिर्फ एक बार बतौर प्रधानमंत्री सर्विस प्लेन से दिल्ली से पटना गये। उसमें भी लगभग पूरे जहाज की अग्रिम सरकारी बुकिंग कर ली गयी, इसी तरह एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) सुरक्षा का मामला था। वह एसपीजी सुरक्षा हटाना चाहते हैं, इसे लेकर बकायदे प्रचार अभियान चलवाया गया, ताकि वह नैतिक आभा मिल सके, पर अन्त तक वह एसपीजी से घिरे रहे, चन्द्रशेखर नहीं (यह सवाल उठाना चाहिए कि हमारे बड़े नेता ऐसी सार्वजनिक घोषणाएँ क्यों करते हैं? किन प्रयोजनों के तहत करते हैं? जिन पर अमल नहीं कर सकते? ऐसा नहीं कि ये बड़े नेता सिस्टम की बारीकियों को नहीं जानते, फिर जानते हैं, तो ऐसी घोषणाएँ किस मकसद से करवाते या करते हैं? जीवन में यह दोहरापन क्यों?) महज लोकलुभावन नारों से देश के शीर्षस्थ नेता भी देश चलाने का अभिनय करें, इससे अधिक देश का दुर्भाग्य क्या होगा? किसी से तो भरोसा या विश्वास का रिश्ता बने।

बहुत पहले अब्राहम लिंकन का एक पत्र पढ़ा था। वह पत्र प्राइमरी स्कूल के अध्यापक को लिखा गया था, जहाँ उनका बेटा पढ़ता था। अद्भुत पत्र है। मानव समाज के लिए धरोहर। लिंकन ने उस पत्र में स्कूल के अध्यापक से इच्छा प्रकट की है कि किस तरह की शिक्षा मेरे पुत्र को दें। एक जगह उसमें उल्लेख है कि शिक्षा ऐसी, जो उसके अंदर विवेक, ऊर्जा और आत्मविश्वास दे कि जो भी वह सही समझे, उस पर अंतिम क्षण तक टिका रहे। भले ही पूरी दुनिया उसके खिलाफ हो, और वह अकेले हो। दुनिया के खिलाफ अपनी मान्यताओं पर अकेले टिके रहने का आत्मविश्वास। दुनिया की नियति तय करने वाले नेताओं की भी एक खासियत है। जन भावनाओं में वे नहीं बहते, भीड़ की मानसिकता के अंग नहीं बनते, अनपापुलर डिसीजन (अलोकप्रिय और जोखिम भरे फैसले) लेने का साहस रखते हैं। वोट, सत्ता और भीड़ के व्याकरणानुसार अपनी नीति-धारा तय नहीं करते, इस कसौटी पर हाल के वर्षो में इन्दिरा गाँधी नेता थीं, और उनके बाद सिर्फ चन्द्रशेखर।

जयप्रकाश आन्दोलन शुरू हुआ। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर इन्दिरा जी से जे.पी. से टकराव न लेने के लिए कहा। इसकी कीमती भी चुकायी। जे.पी. से भी कहा, संपूर्ण क्रांति स्पष्ट नहीं है। जिस तरह के लोग साथ हैं, उससे आदर्श समाज नहीं बन सकता। अब तो यह शोध का विषय है कि जे.पी. आन्दोलन से निकले राजनीतिज्ञों ने देश की राजनीति को कितना नफा या नुकसान पहुँचाया? जब भी कोई गंभीर सवाल देश के सामने हो और उस पर बेलौस व दो टूक बातें कहनी हों, तो उनके जीते जी चन्द्रशेखर के अलावा दूसरा नाम नहीं दिखाई देता था। सिक्खों के खिलाफ (इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद) हुए दंगों में अकेले वह विवेक की आवाज थे, आपरेशन ब्लूस्टार के खिलाफ कहीं उनकी चेतावनी भरी बातें, भविष्यवक्ता की टिप्पणी हो गयी। देश ने इसकी भारी कीमत चुकायी। और इन सवालों को साफ-साफ कहने के कारण काँग्रेस के कुछ खास लोगों ने, अरुण नेहरू की अगुवाई में बलिया में कैंप किया।

1984 लोकसभा चुनावों में सरकारी तंत्र के बल उन्हें चुनाव हरवाया और ‘बलिया के भिंडरावाले’ नारे लगवाये। आपरेशन ब्लूस्टार व सिख विरोधी दंगों पर उनके ऐतिहासिक स्टैंड को तात्कालिक तौर पर उनके खिलाफ राजनीतिज्ञों ने इस्तेमाल किया, पर देश ने इसकी क्या कीमत चुकायी? आज वही भीड़, जनता और सारे नेता एक स्वर में कहते हैं कि चन्द्रशेखर में दूरदृष्टि थी। जोखिम लेकर अपनी बातें कहने का साहस था। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकर उनके दल की सरकार थी। कश्मीर में जगमोहन के जाने, औद्योगिक घरानों की इच्छानुसार अजीत सिंह की उद्योग नीति और नेपाल में लोकतांत्रिक ताकतों के विरोध नीति के खिलाफ उन्होंने अकेले मुखालफत की।

आज की छोटी राजनीति ने देश को तबाही के जिस कगार पर ठेल दिया है, उसके खिलाफ हाल के वर्षों में वह एकमात्र विवेक की आवाज रहे हैं। धर्म और जाति की नींव पर राजनीति करने वालों को उन्होंने साफ-साफ इसके खतरे बताये। न्यायपालिका की अतिशय सक्रियता के बारे में उन्होंने ही अकेले देश को आगाह किया। आर्थिक नीतियों एवं विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ उनकी देशव्यापी यात्रा, उनकी शुरू की नीतियों का ही विस्तार था। चाहे बिड़ला घराने के माध्यम से राजनीति में पूँजी के एकाध्ािकार का बढ़ता प्रसंग हो, सार्वजनिक क्षेत्रों को ताकतवर बनाने का मामला हो (बैंक राष्ट्रीयकरण या प्रिवीपर्स खात्मे की पहल जैसे कदम) या नयी अर्थनीति का प्रसंग हो, वह अकेले ही सक्रिय रहे। नयी अर्थनीति से देश के विभिन्न राज्यों में कैसे आर्थिक खाई-विषमता बढ़ी है? इसके संभावित खतरे क्या हैं? कितने छोटे उद्योग बंद हुए हैं? बेरोजगारी कितनी बढ़ी है, इन प्रश्नों पर वह अकेली आवाज थे।

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नयी अर्थनीति से बढ़ती विषमता पर उन्होंने गहराई से अध्ययन किया। जीवन के अंतिम दौर में इस पर गंभीर नोट तैयार किया। और ऐसा नहीं है कि वह सिर्फ अपने साहसिक स्टैंड के लिए ही जाने जाते थे। उनकी रचनात्मक विलक्षणता को देश नहीं जानता। अकेले अपने बूते पर उन्होंने ऐसे अनेक काम किये, जो अविश्वसनीय हैं। यह रचनात्मक प्रतिभा आज जीवित किसी भी नेता में नहीं है।

भारत यात्रा केंद्र या भुवनेश्वरी आश्रम, बलिया का शहीद स्मारक दरअसल बंजर, रेगिस्तान और पहाड़ पर चन्द्रशेखर की रचनात्मक प्रतिभा के ‘नखलिस्तान’ हैं। कोई बड़ा संगठन पीछे नहीं, बड़ी पूँजी वाला बल नहीं। लोगों से माँग-माँग कर, खुद तीखी धूप में खड़े होकर काम करते थे। घंटों कार्यकर्ताओं के साथ ईंट ढोते हुए-सफाई करते हुए-कराते हुए, निर्माण का अनूठा विजन, सुनसान और पथरीले भूखंडों पर बने एक-एक भारत यात्रा केंद्र एक पुस्तक के विषय हैं। जयप्रकाश जी की जन्मभूमि में बना जे.पी. स्मारक तो चमत्कार ही है, पत्थर पर दूब उगाने जैसे। यह गाँव दो नदियों, गंगा-घाघरा के बीच में स्थित है। सिर्फ नाव से ही आना-जाना संभव था। जे.पी. खुद नदी पार कर पैदल या हाथी से घर पहुँचते थे। न अस्पताल, न सड़क, न ढंग के स्कूल। चार-पाँच महीने बाढ़ के पानी में डूबा रहने वाला गाँव।

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आवागमन के साधन नहीं, पास के शहर-केंद्रों, आरा, छपरा या बलिया जाने में कम से कम पूरे दिन का समय लगता था। आज वह गाँव बदल गया है। सड़क है, बेहतरीन स्कूल हैं। लड़कियों का काॅलेज है। बाढ़ से सुरक्षा है और सबके ऊपर अद्भुत जे.पी. स्मारक है। प्रभावशाली लाइब्रेरी, जे.पी. का स्मारक, जे.पी. का पुश्तैनी घर और खादी बोर्ड द्वारा संचालित स्वरोजगार प्रशिक्षण केन्द्र। राजेन्द्र बाबू के पुश्तैनी घर वगैरह पर अपराधियों का कब्जा था। ढंग की कोई चीज नहीं बनी थी। जो थे, वे खंडहर बन रहे थे। नीतिश कुमार ने रुचि लेकर राजेन्द्र बाबू के स्मृति-स्थल का उद्धार करवाया है। गांधी के पोरबंदर के बारे में भी खबर है कि वह भी अपराधियों के रहमोकर पर है। गांधी जिस स्कूल में पढ़े, वह खंडहर हो चुका है। बंद होने की स्थिति में है। ऐसे माहौल में जेपी. का अनोखा स्मारक, चन्द्रशेखर के श्रम, संकल्प और सृजन क्षमता का जीवंत प्रतिरूप है, और उसे विशिष्ट बनाया जे.पी. के अभिन्न सहयोगी, स्वतंत्रता सेनानी, त्याग, ईमानदारी व सादगी की प्रतिमूर्ति जगदीश बाबू ने। 

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चन्द्रशेखर बराबर कहते रहे हैं: हमें किसी के सामने हाथ फैलाने की भी जरूरत नहीं। एडमंड वर्क (ब्रिटिश राजनीतिज्ञ व लेखक) ने बहुत पहले कहा था कि एक सच्चा राजनीतिज्ञ हमेशा इस बात पर सोचता रहता है कि कैसे वह अपने देश में मौजूद संसाधनों से ज्यादा से ज्यादा अर्जित करे, तरक्की करे। प्रधानमंत्री थे, तो एक अनोखी योजना का प्रारूप बना। सरकार चली गयी। इसलिए योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी। रचनावाहिनी के गठन की। हमारे विश्वविद्यालयों में कभी पढ़ाई का लेखा-जोखा (कैलेंडर) नहीं किया जाता। अगर यह हो, तो पता चलेगा कि साल में चार-पाँच महीने (रविवार को छोड़कर) छुट्टियों में निकल जाते हैं। हड़ताल-आन्दोलन में बरबाद समय अलग। इस गरीब देश में सालभर में बमुश्किल तीन-चार महीने कक्षाएँ होती हैं और अध्यापकों और संस्थानों (इंस्टैबिलिशमेंट) पर नियमित 12 माह का खर्च सरकार करती है, यानी उत्पादकता के चार माह और सरकार मजदूरी देती है, 12 माह की। पूँजीवादी देश अमेरिका में भी सरकार ऐसा नहीं करती। चन्द्रशेखर ने योजना आयोग के माध्यम से प्रस्ताव रखा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के मंच से देश भर के कुलपतियों को सम्बोधित किया, रचनावाहिनी खड़ा करने का प्रारूप रखा। विश्वविद्यालय के अध्यापकों को संबोध्ाित किया। कहा कि रचनावाहिनी खड़ा कर अनिवार्य समय गाँव में दें। गाँवों में जायें और वहीं रहें। लोगों को साक्षर बनाने और बंजर भूमि को आबाद करने में युवा छात्र-ताकत लगे। अपने श्रम, पौरुष और रचनात्मक ताकत को देश बनाने में युवा लगायें, गौर करिए, हमारे देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय व हजारों काॅलेज हैं। छात्रों और अध्यापकों की तादाद करोड़ों में होगी। जिस दिन यह ताकत देश बनाने निकल पड़ेगी, उस दिन मुल्क का क्या स्वरूप होगा? अफसोस कि वह सोच उनके साथ ही चली गइ।

भुवनेश्वरी आश्रम पर चर्चा क्यों

चन्द्रशेखर के भुवनेश्वरी आश्रम की चर्चा खूब होती थी। अदालतों से लेकर अखबार के पन्नों तक। पर उसका एक पक्ष अचर्चित रहा। बंजर को आबाद करने की उनकी क्षमता की। और सारे बड़े नेताओं-नौकरशाहों और पूँजीपतियों के दिल्ली से लेकर हिमाचल तक के बड़े फार्म हाउसों पर एक लाइन चीजें नहीं छपतीं, क्योंकि वे इलीट क्लास (शासक वर्ग) की हैं। ये निजी फार्म हाउस कैसे बने? कहाँ से पैसे आये? कैसे जमीनें ली गयीं? कहाँ क्या होता है? यह ठीक है कि कि भारत यात्रा केन्द्र ट्रस्ट की जमीन-संस्थाओं पर सार्वजनिक चर्चा हो, पर नितांत गलत तरीके से बने निजी फार्म हाउसों पर चुप्पी क्यों? अदालतों में भी ये प्रसंग नहीं उठे। चूंकि चन्द्रशेखर उस इलीट वर्ग के खिलाफ रहे, इसलिए उन्हें परेशान किया गया, पर उन्हें नहीं, जो निजी मिल्कियतें खड़ी करते रहे हैं। और चन्द्रशेखर ही मीडिया में विलेन के रूप में पेश किये जाते थे। इसके भी कारण थे, जिस पूँजी के खिलाफ पिछले साठ वर्षों में उनकी राजनीति हमलावर रही, वही पूँजी मीडिया को नियंत्रित करती है। वही पूँजी मीडिया का प्रखर स्वर तय करती है। उस पूँजी के मालिक फैसला करते हैं कि किस राजनीतिक धारा, व्यक्ति, संगठन और मुद्दों को प्राथमिकता देनी है और किन्हें हाशिये पर रखना है? चन्द्रशेखर इस पूँजी और इसकी मीडिया ताकत के बावजूद अपनी जगह थे। उनकी मर्जी से नहीं। वे हमेशा कहते थे यदि गरीब की झोंपड़ी में उजाला करना है तो महलों की चकाचौंध को थोड़ा काम करना होगा।

मीडिया को फटकारते थे

इतना ही नहीं, इन्दिरा गांधी के बाद वही एक प्रधानमंत्री हुए, जो मीडिया-पत्रकारों को भी खरी-खोटी सुनाते थे। फिर तो एक शैली विकसित हो गई। चाहे वी.पी. सिंह हों या वाजपेयी, सारे बड़े मीडिया घरानों और बड़े पत्रकारों से उनके निजी ताल्लुक रहे। कब, कहाँ, किससे मीडिया में फेवर लेना है, यह तंत्र-कला उन्हें मालूम थी। बड़े राजनेताओं द्वारा बड़े पत्रकारों को सरकारी कोष से भारी रकम देने की सूची वर्षों पहले जगजाहिर हो चुकी है। सरकार उन्हें उपकृत करती है और मीडिया के दिग्गज अपने फेवरिट राजनेता को। पत्रकारों को सांसद बनाने की मुहिम हो या अखबारों को फाइनेंस करा कर अखबार निकलवाने का दौर हो या चैनलों में अपने प्रभाव-दखल बढ़ाने की प्रतिस्पद्र्धा हो, चन्द्रशेखर इस खेल से ही बाहर रहे। शुरू से ही। उनकी सरकार थी, तो उन्होंने काँग्रेस सरकार से चली आ रही नीति को खत्म कराया। दूरदर्शन या रेडियो पर क्या खबरें रोज जाती हैं, क्या सुर्खियाँ हों, यह दूरदर्शन और आल इण्डिया रेडियो पर स्वतंत्र छोड़ दिया गया। कोई बंदिश नहीं। न प्रसारण से पहले जांच, ताकि सरकार व प्रधानमंत्री की इमेज बिल्डिंग हो। मीडिया को मैनेज करने, उनकी खुशामद करने व चापलूसी करने की संस्कृति उन्होंने खत्म कर दी थी। आज हालात बदल गये हैं। दिल्ली से लेकर कस्बों तक नेता पहले ‘मीडिया मैनेजमेंट’ में ही दक्षता पाते हैं। 

बढ़ रहे करोड़पति सांसद

आज राजनीति से गंभीर मुद्दे और सवाल गायब हैं। संसद में बहसों का स्तर देख लीजिए। बहुत पहले एक बार चन्द्रशेखर जी ने बताया था। जब पहली बार संसद पहुँचा, तो बड़े-बड़े नेताओं से संपर्क हुआ, जिनके नाम, बयान और स्टैंड, अखबारों की सुर्खियाँ बनते थे। चन्द्रशेखर जी ने कहा कि मैं हैरान रह गया कि ऐसे नेताओं को अधिक समय वह ये बातें करते हुए पाते थे कि मेरे ड्राइंगरूम का परदा, गद्दे का कवर किस रंग का है? दोनों में तालमेल है या नहीं? कौन सी अत्याधुनिक चीजें हमारे पास हैं? क्या विदेश से मंगानी हैं? चन्द्रशेखर जी ने कहा कि मैं यह सब देख कर हतप्रभ रह गया कि जिस मुल्क में 50 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे बेबस जीवन जी रहे हैं, उनके रहनुमा किस दुनिया में हैं? आज के प्रसंग में चन्द्रशेखर का यह कथन गौर करिए। करोड़पति सांसदों की बढ़ती संख्या। राजनीति में कारपोरेट हाउसों के बढ़ते दखल। देश के शासकों के बीच उपभोग-लक्जरी की लेटेस्ट चीजों को पाने की स्पर्धा। अगर यह गणित साफ है, तो समझ में आता है कि संसद में बहस का स्तर कैसे और क्यों रसातल में पहुँच गया है? विरोध में भी मर्यादा! लोकतंत्र और लोकतांत्रिक समाज का मूल प्राण है। बात उन दिनों की है, जब युवा तुर्क के रूप में चन्द्रशेखर ने मोरारजी भाई की नीतियों पर प्रहार किया। तारकेश्वरी जी, मोरारजी की प्रबल समर्थक थीं। उन्होंने सीरीज में लेख लिख कर चन्द्रशेखर पर हमला किया। चन्द्रशेखर को कुछ लोग उनसे संबंधित निजी दस्तावेज दे गये। चन्द्रशेखर ने उसे इस्तेमाल नहीं किया। उनकी जानकारी तारकेश्वरी जी को थी। बाद में उनके निजी जीवन में कुछ गहरे संकट आये, तो चन्द्रशेखर ने उन्हें मदद कर विपत्ति से उबारा। पर वह ऐसी चीजों की चर्चा नहीं करते थे। जगजीवन राम समेत अनेक दिग्गज लोगों ने विपत्ति में उन पर ही भरोसा किया। पटना बांसघाट पर जे.पी. की अंत्येष्टि हो रही थी। संजय गांधी, इन्दिरा गांधी को वहाँ देख कर युवकों का एक समूह अचानक उग्र हो उठा। चन्द्रशेखर ने वस्तुतः दौड़ कर युवकों को पकड़ लिया। बीच में खड़े हो गये। स्थिति संभाली, बातचीत में इन्दिरा गांधी के प्रति उनके मन में सम्मान था। कहीं कटुता नहीं। आज जब राजनीति में मामूली विवाद जीवन-मरण के प्रसंग बन गये हैं। 

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भारतीयता की गहरी समझ थी

उनमें भारतीयता की गहरी समझ थी। भारत की विशिष्टताएँ और अतीत की वे चीजें, जो वर्तमान में सीखने योग्य हैं, वह जिस दृष्टि और संदर्भ में बताते थे, वह उल्लेखनीय था। भारत की नदियों की सफाई, सूखती गंगा, यमुना, घाघरा पुनर्जीवन के अभियान, तीर्थों की सफाई, गाँधी के चंपारन स्थित भितहरवा के कायाकल्प या महापुरुषों के जीवन से जुड़े प्रेरणा केंद्र बनाते या राष्ट्रीय धरोहर के नवनिर्माण के प्रसंग या सपने या अभियान। उनके अन्दर एक बेचैनी और दृष्टि थी। इस देश को उन्होंने जितना घूमा, उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम की पैदल व कार यात्राएँ कीं, वह अन्य नेताओं के वश की बात नहीं है। आज चन्द्रशेखर जी को याद करता हूँ, तो उनकी कौन सी छवि उभरती है? अनेक दृश्य उभरते हैं। शुरू के उनके संघर्ष के दिन, स्वाभिमान और प्रतिबद्धता से भरपूर। ‘मेरी जेल डायरी’ के अंश याद आते हैं। पुराने दिनों के बारे में कहीं-कहीं उन्होंने लिखा है। लखनऊ पार्टी कार्यालय में खुद बरतन धोने, कई शाम उपवास रहने के दिन। एक उल्लेख मेरी स्मृति में बार-बार उभरता है। ‘होली’ के दिन पार्टी कार्यालय (लखनऊ) में उपवास रहने की अनुभूति जब चन्द्रशेखर जी जेल डायरी में दर्ज करते हैं। मेरठ में एक मिल के सामने संघर्ष में मजदूरों के पक्ष में सिर्फ दो लोगों (जिसमें एक खुद वह थे, दूसरे उनके मित्र ओमप्रकाश श्रीवास्तव) का प्रदर्शन-सभा और गिरफ्तारी या इलाहाबाद में आयोजित एक सभा में छात्र नेता के रूप में अकेले पार्टी झंडा लेकर, इलाहाबाद स्टेशन पर मुंबई से आ रहे तब के जाने माने पत्रकार डी. एफ. कारका की अगवानी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संगठन नेता के रूप में अंग्रेजी में तैयार उनकी प्रेस विज्ञप्ति देखकर, पत्रकार शिरोमणि चलपति राव (नेशनल हेराल्ड के संपादक) द्वारा अंग्रेजी और उस प्रेस विज्ञप्ति के कंटेंट की सराहना और युवा चन्द्रशेखर के बारे में तहकीकात। या उनके युवा तुर्क दिनों की भूमिका, गुजरात-महाराष्ट्र में उन पर हमले। राजनीति में अर्थनीति के प्रसंगों को देश में बहस मोरचे पर लाने वाले चन्द्रशेखर, प्रिवीपर्स और बैंक राष्ट्रीयकरण के सवालों को उठाने वाले चन्द्रशेखर। मुंबई काँग्रेस कार्यसमिति में एक शब्द पर आठ घंटे की बहस करने वाले चन्द्रशेखर। सभी दिग्गज एक तरफ, चन्द्रशेखर अकेले। रात 12 बजे इन्दिरा जी ने खाना खाने के लिए सबको निमंत्रित कर बैठक स्थगित करवायी, वह चन्द्रशेखर। या उस चन्द्रशेखर की छवि जब उनकी पत्रिका यंग इंडियन के उनके संपादकीय, अखबारों के बैनर हेडलाइंस बनते थे। वह चन्द्रशेखर भी उभरते हैं, जो इन्दिरा जी के अधिकृत प्रत्याशी को पराजित कर शिमला काँग्रेस अधिवेशन (1972) में सबसे अधिक मत पाकर, काँग्रेस कार्यसमिति में चुने गये। वह काँग्रेसी चन्द्रशेखर भी जेहन में उभरते हैं, जिन्होंने इन्दिरा जी के ताप के, शीर्ष उफान के दिनों में (जब काँग्रेस अध्यक्ष ने कहा था, इन्दिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इन्दिरा) सार्वजनिक रूप से कहा, संत (जेपी) सत्ता से इन्दिरा जी (राजसत्ता) न टकरायें, परिणाम बुरे होंगे। उन्हीं दिनों जब काँग्रेसी जे.पी. को फासिस्ट करार दे चुके थे, तब जे.पी. को अपने घर चाय पर बुलाना। और इसमें 60 काँग्रेसी सांसदों का पहुँचना। देश में तूफान खड़ा हो गया। इन काँग्रेसी सांसदों में इन्दिरा जी के विश्वस्त सिपहसालार सिद्धार्थ शंकर राय की सांसद पत्नी माया रे भी थीं। याद आता है, अगले ही दिन सिद्धार्थ शंकर राय का बयान आया कि उनकी पत्नी (माया रे) को मालूम नहीं था कि चन्द्रशेखर के घर जे.पी. आने वाले हैं। दूसरे दिन चन्द्रशेखर का बयान अंग्रेजी अखबारों का बैनर हेडलाइन था, मेरे अंदर और कोई कमी हो सकती है, पर सच कहने का नैतिक साहस है, मेरे यहाँ आने वाले हर सांसद को पता था कि वे जे.पी. के साथ चाय पीने-बात करने आ रहे हैं। इसके बाद काँग्रेस में सब चुप। जनता पार्टी शासन में कुछेक लोग इन्दिरा जी से सरकारी आवास खाली कराने पर तुले थे, इसके खिलाफ अकेले स्टैंड लेने वाले। चन्द्रशेखर भारत यात्रा करने वाले चन्द्रशेखर। 1984 में बलिया के भिंडर वाले कह कर जिन्हें पराजित किया गया, उसके बाद जे.पी. स्मारक के निर्माण जैसे रचनात्मक कार्यों में बगैर संसाध्ानों के अकेले लगे चन्द्रशेखर। वह चन्द्रशेखर जब 1982-83 में इन्दिरा जी से पूछा गया कि आपके बाद देश को समझने वाला-संभालने वाला नेता कौन है? तो उन्होंने विपक्ष के चन्द्रशेखर का पहला नाम लिया। या सिर्फ 50 सांसदों के बल प्रधानमंत्री बनने वाले चन्द्रशेखर। या नयी अर्थनीति पर लोकसभा में’ 91 में तब अकेला विरोधी स्वर। डंकल-गैट के सवाल पर देशव्यापी कार यात्रा करने वाले चन्द्रशेखर। देश के कोने-कोने जाकर संवाद आयोजित करने वाले चन्द्रशेखर। ये और ऐसी अनेक उनकी छवियाँ उभरती हैं। देश की शीर्ष राजनीति में तीन दशकों तक सूत्रधार रहने वाले चन्द्रशेखर की। 

जो कंधों पर चढ़े वे सब छोड़ गए

इन पर सभी ‘छवियों’ में चन्द्रशेखर का अंतिम दौर याद आता है। जो उनके कंधों पर राजनीति की सीढ़ी चढ़े, वे उन्हें छोड़ कर जा चुके थे। जो व्यक्ति देश के मामलों में चार दशकों तक शीर्ष पर रहा, वह अन्त में अकेला रह गया। पर वही आत्मस्वाभिमान। तेवर और खुद्दारी। शीर्ष पर रहे लोग जब अकेले पड़ते हैं, तो वे कमजोर हो जाते हैं। पर चन्द्रशेखर अलग मिट्टी के थे। अकेले अपने कन्विक्शन के साथ जीने वाले। अपनी ही शर्तों पर जीने वाले-राजनीति करने वाले, ऐसे कितने लोग आज राजनीति में दिखाई देते हैं? प्रधाानमंत्री के अपने छोटे कार्यकाल में उन्होंने जो साहसिक फैसले किये, वे दूरगामी थे। ऐसे फैसले वही कर सकता है, जो अपने कन्विक्शन पर चलता हो।

देश को कंगाल होने से बचाया

याद आता है, 1991 का अर्थसंकट। यह दिवालिया होने की स्थिति अचानक नहीं आयी। गुजरे 30 वर्षों की अर्थनीति और भ्रष्टाचार से उपजा था, यह अर्थसंकट। पर 1987 से यानी राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह, दोनों ने प्रधानमंत्री के तौर पर इस संकट से जुड़ी फाइल दबाये रखी। कोई निर्णय नहीं किया। जब चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री हुए, तो विमल जालान यह फाइल लेकर उनके पास आये। शपथ लेने के एक दो दिनों के अंदर ही। फाइल देख कर चन्द्रशेखर जी ने पूछा कि वर्षों से क्या यह फाइल मेरे लिए रखी गयी थी? उत्तर था कि नहीं पूर्व के सभी प्रधानमंत्री ने इसे देखा, पर निर्णय नहीं लिया। चन्द्रशेखर जी के न रहने पर आर्थिक टीकाकार जयतीरथ राव ने लिखा कि आज देश उदारीकरण के बाद विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देख रहा है। अगर 1991 में चन्द्रशेखर जी ने अर्थसंकट से बचाया न होता तो देश कंगाल हो गया होता। 

(यह आलेख राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश के आर्टीकल चन्द्रशेखर भीड़ में अकेले से लिया गया है)