दुनिया / कोरोना वायरसः ब्रिटेन में भारतीयों और पाकिस्तानियों को ज़्यादा ख़तरा

एनालिसिस से उम्र, लोगों के रहने की जगह, संसाधनों की कमी और पिछली स्वास्थ्य दिक्क़तों के आधार पर यह असमानता दिखाई देती है, भारतीय, बांग्लादेशी और पाकिस्तानी लोग भी इस बीमारी से मरने के ज़्यादा जोखिम वाले तबके में शामिल हैं। सरकार ने इस मामले की समीक्षा करने के आदेश दे दिए हैं। ओएनएस के एनालिसिस में कोविड-19 की वजह से होने वाली मौतों में 2011 की जनगणना में लोगों की राष्ट्रीयता की जानकारियों को शामिल किया गया है।

BBC : May 08, 2020, 11:21 AM
दिल्ली: एनालिसिस से उम्र, लोगों के रहने की जगह, संसाधनों की कमी और पिछली स्वास्थ्य दिक्क़तों के आधार पर यह असमानता दिखाई देती है, भारतीय, बांग्लादेशी और पाकिस्तानी लोग भी इस बीमारी से मरने के ज़्यादा जोखिम वाले तबके में शामिल हैं। सरकार ने इस मामले की समीक्षा करने के आदेश दे दिए हैं।

ओएनएस के एनालिसिस में कोविड-19 की वजह से होने वाली मौतों में 2011 की जनगणना में लोगों की राष्ट्रीयता की जानकारियों को शामिल किया गया है।उम्र, लोकेशन और संसाधनों की कमी और पहले से बीमारियों को देखते हुए यह पाया गया कि काले लोगों के गोरों की तुलना में कोविड-19 से मरने के 90 फ़ीसदी ज़्यादा आसार हैं।

विश्लेषण के मुताबिक़, भारतीय, बांग्लादेशियों और पाकिस्तानियों के लिए यह जोखिम 30 फ़ीसदी से लेकर 80 फ़ीसदी तक है।

बीबीसी के स्टैटिस्टिक्स हेड रॉबर्ट कफ़ बताते हैं कि यह विश्लेषण ज़्यादा जोखिम की वजहों को पूरी तरह से नहीं समझा सकता क्योंकि इसमें लोगों की मौजूदा स्वास्थ्य स्थिति, क्या वे भीड़भाड़ वाली जगहों पर रह रहे हैं, क्या वे फ्रंट-लाइन भूमिकाओं के ज़रिए वायरस के संपर्क में तो नहीं आ रहे हैं या समुदायों के बीच अंतर जैसी चीज़ों को शामिल नहीं किया गया है।

सामाजिक-आर्थिक कारण भी अहम

ओएनएस ने सुझाव दिया है कि जोखिम की कुछ वजहें अन्य सामाजिक या आर्थिक कारण भी हो सकते हैं जिन्हें इस डेटा में शामिल नहीं किया गया है।

इसमें कहा गया है कि कुछ राष्ट्रीयता वाले समूहों में सार्वजनिक लोगों के साथ संपर्क वाले कामों में ज़्यादा प्रतिनिधित्व हो सकता है और ऐसे में इनके कामकाज़ के दौरान संक्रमित होने के ज़्यादा आसार हैं।

ओएनएस की योजना कोरोना वायरस के जोखिम और लोगों के काम की प्रकृति के बीच संबंध ढूंढने की है , पिछली स्वास्थ्य स्थितियों और लोकेशन जैसे दूसरे फैक्टर्स को शामिल किए बगैर विश्लेषण में पाया गया है कि अश्वेत लोगों की कोरोना वायरस के संपर्क में आने के बाद मरने की आशंका चार गुनी तक है।

क्या गुमराह करते हैं ये आँकड़े?

नॉटिंघम यूनिवर्सिटी में संक्रामक बीमारियों के महामारी विज्ञान के एमेरिटस प्रोफ़ेसर प्रो। कीथ नील कहते हैं कि ये आँकड़े गुमराह करने वाले हैं।

उन्होने कहा कि क्या समूह ऐसे इलाक़ों में रह रहे हैं जहां कोरोना वायरस के ज़्यादा मामले हैं, जैसे ज्ञात तथ्यों को शामिल किए बगैर जोखिम में अंतर वास्तविक से ज़्यादा दिखाई दे सकता है।

इन मसलों को शामिल करने के बाद काले लोगों की मृत्यु दर गोरों की तुलना में 1.9 गुना निकली। बांग्लादेशी और पाकिस्तानी पुरुषों और महिलाओं के लिए यह जोखिम 1.8 गुना था जबकि इन समुदायों में महिलाओं के लिए यह जोखिम 1.6 गुना ज़्यादा था।

क़दम उठाए जाने चाहिए

शैडो जस्टिस सेक्रेटरी डेविड लैमी कहते हैं कि अश्वेत लोगों के ज़्यादा जोखिम में होने का तथ्य काफ़ी परेशान करने वाला है।

टोटेनहैम से लेबर सांसद ने ट्विटर पर लिखा है, 'इस अंतर की वजहों की जांच होनी चाहिए। काले लोगों को बचाने के लिए क़दम उठाए जाने चाहिए। साथ ही सभी तरह के लोगों को वायरस से बचाने की कोशिश की जानी चाहिए।'

हेल्थ फाउंडेशन की रिसर्च में पता चला है कि एथनिक माइनॉरिटी वर्कर्स के ऐसे कामकाज़ से जुड़े होने के ज़्यादा आसार हैं जिनमें महामारी के दौरान वायरस के शिकार होने का ज़्यादा जोखिम है।

यह पाया गया है कि लंदन में हालांकि, अश्वेत और एशियाई मूल के कर्मचारियों की आबादी कुल वर्किंग आबादी का 34 फ़ीसदी है, लेकिन वे फूड रीटेल में 54 फ़ीसदी, हेल्थ और सोशल केयर स्टाफ़ में 48 फ़ीसदी और ट्रांसपोर्ट में काम करने वालों का 44 फ़ीसदी हिस्सा हैं।

हेल्थ फाउंडेशन के असिस्टेंट डायरेक्टर टिम एलवेल-सुटन कहते हैं कि सरकार के अलग-अलग समूहों पर कोरोना वायरस के असर के आकलन के लिए ऐलान किए गए रिव्यू में यह भी पता किया जाना चाहिए कि गहरे तक समाए भेदभाव और सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर मौजूद लोग किस तरह से ज्यादा जोखिम में हैं।


एशियाई और अश्वेत भीड़भाड़ वाली जगहों में रह रहे

जोसेफ राउनट्री फाउंडेशन की एक्टिंग डायरेक्टर हेलेन बर्नार्ड कहती हैं कि काले, एशियाई और माइनॉरिटी एथनिक बैकग्राउंड के वर्कर्स के भीड़भाड़ वाले घरों में रहने के ज़्यादा आसार हैं, इससे इनके परिवारों में भी वायरस फैलने का ख़तरा पैदा हो रहा है।

उन्होंने कहा कि यूके में कम तनख्वाह, असुरक्षित नौकरियां और तेज़ी से बढ़ती लिविंग कॉस्ट से यह संकट और गहरा गया है। उन्होंने कहा, 'हमें ख़ुद से पूछना चाहिए कि वायरस के गुजरने के बाद हम किस तरह के समाज में जीना चाहते हैं।'

डिपार्टमेंट ऑफ़ हेल्थ एंड सोशल केयर की एक स्पोक्सवुमन ने कहा कि उन्होंने देशीयता, मोटापा, लोकेशन और दूसरे फैक्टरों के आधार पर वायरस के असर का पता लगाने के लिए पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड को कहा है।उन्होंने कहा, 'हमारे लिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि कौन से ग्रुप ऐसे हैं जो कि सबसे ज़्यादा जोखिम में हैं। तभी हम उन्हें बचाने और जोखिम को न्यूनतम करने के लिए क़दम उठा पाएंगे।'