AajTak : Sep 15, 2020, 08:25 AM
Delhi: सम्राट कामदेव सिंह, वो नाम एक जमाने में जिसकी बिहार के बेगूसराय में तूती बोलती थी। गरीब उन्हें मसीहा मानते थे तो विरोधी माफिया। उनकी जंग कम्युनिस्टों से थी। दोनों आमने-सामने आए तो हालात ऐसे हो गए कि बेगूसराय और आसपास के इलाकों में आए दिन गोलियों की आवाज गूंजने लगी, बंदूकों के बल पर फैसले होने लगे। हर पखवाड़े मर्डर होते थे। बूथ कब्जाना आम बात थी।
इन सबके लिए कामदेव सिंह को जिम्मेदार माना गया, जबकि उनके समर्थक कहते हैं कि कम्युनिस्टों की हिंसा का विरोध किसी और तरीके से करना मुश्किल था। बाद में समीकरण ऐसे बने कि केंद्र से लेकर राज्य तक उनपर शिकंजा कसा जाने लगा। हत्या और तस्करी का आरोप लगा। उनके धंधे बंद हुए और फिर एनकाउंटर भी हो गया। पूर्व विधायक और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) नेता राजेन्द्र राजन कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी से उनकी कोई राजनीतिक प्रतिद्वंदिता नहीं थी। लेकिन वो गांजे की तस्करी करते थे। 1969 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध किया। उस समय भोला सिंह सीपीआई के कैंडिडेट थे। उस दौर में कामदेव सिंह ने सोनापुर, नयागांव के बूथ पर हंगामा किया, पोलिंग एजेंटों को भगा दिया और बूथ छाप दिया।
बेगूसराय के 34 बूथों पर किया था कब्जाराजेंद्र राजन 1969 के बाद 1971 के लोकसभा चुनाव के बारे में बताते हैं कि तब योगेंद्र शर्मा सीपीआई के उम्मीदवार थे और श्यामनंदन मिश्रा कांग्रेस के। सरयू प्रसाद सिंह ने श्यामनंदन मिश्रा को कामदेव सिंह से मिलवाया। कामदेव सिंह ने बेगूसराय के 34 बूथों पर कब्जा किया और कांग्रेस को जीत दिलाई। हालांकि योगेंद्र शर्मा बेगूसराय की 6 में से 5 विधानसभा सीटों पर आगे थे। इसके बाद बेगूसराय में कामदेव सिंह और कम्युनिस्ट पार्टी आमने-सामने आ गए। 1971 में ही कामदेव सिंह के लोगों ने एक संघर्ष के दौरान 13 साल के बच्चे की हत्या कर दी थी। कामदेव पर हत्या का केस दर्ज हुआ। एक साल बाद 2 और हत्याएं हुईं। जिसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने उनके खिलाफ राजनीतिक आंदोलन शुरू किया।
सूर्य नारायण सिंह ने संसद में भी उठाया मुद्दातत्कालीन जिला मंत्री सूर्य नारायण सिंह के नेतृत्व में पूरी पार्टी सड़क पर आई। बाद में जब सूर्य नारायण सिंह सांसद बने तो उन्होंने इस मुद्दे को संसद में भी उठाया। इसके बाद तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने टास्कफोर्स बनवाई और कामदेव सिंह पर शिकंजा कसा जाने लगा। उनके कारोबार बंद करा दिए गए और कामदेव सिंह को झुकने पर मजबूर कर दिया गया। कामदेव सिंह ने समझौता कर लिया कि वह राजनीतिक दखल नहीं देंगे, बूथ पर कब्जा नहीं करेंगे। क्या कामदेव से कम्युनिस्ट चिढ़ते थे इसके जवाब में राजेन्द्र राजन कहते है कि कामदेव सिंह से उनकी निजी लड़ाई कभी नहीं रही। उनके परिवार में कई लोगों ने पढ़ाई लिखाई कर अच्छा मुकाम हासिल किया। उनके बेटे दिल्ली में पढ़े और आज सफल व्यवसायी हैं।
1980 में मारे गए सम्राट कामदेव सिंहसाल 1980 में सम्राट कामदेव सिंह पुलिस एनकाउंटर में मारे गए। बेगूसराय के स्थानीय पत्रकार अशांत भोला इसके बाद उनके गांव मटिहानी पहुंचे थे। उन्होंने बताया कि ''मैं उस वक्त गांव जाने से डर रहा था। क्योंकि पूरे बेगूसराय में एक अजीब तरह की शांति थी। मैं एक रिक्शेवाले को लेकर गांव पहुंचा। पूरे गांव के लोग शोकाकुल थे। थोड़ी देर परिवार वालों से बात करने के बाद मैं वह जगह देखने गया, जहां पर पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों ने उनका एनकाउंटर किया था।''अशांत भोला ने बताया, 'मैंने नदी किनारे बसे पिछड़ी जाति के लोगों से मुलाकात की। सभी रो रहे थे। मैंने पूछा आप क्यों रो रहे हैं। एक औरत जोर-जोर से विलाप करने लगी। उसने कहा कि उसका ''भगवान'' चला गया।
मैंने कहा कि वो तो अपराधी थे तस्करी करते थे। इसके जवाब में औरत ने कहा कि जबतक 'मालिक' जिंदा थे हमें किसी बात की चिंता नहीं थी। हमारे घरों में किसी का जन्म हो, कोई मर जाए या कोई बीमार हो, 'मालिक' ही देखते थे। जब भी वो अपने घर आते थे, हमलोगों से मुलाकात करते थे। हमारी तकलीफ पूछते थे और तुरंत निपटारा भी करते थे। अब हमें कौन देखेगा।'अशांत भोला ने बताया कि कामदेव सिंह भूमिहार थे। जो बेगूसराय में दबंग माने जाते रहे हैं। लेकिन निचली मानी जाने वाली जातियों में भी उनकी स्वीकार्यता थी।
कम्युनिस्टों की सामंती विचारधारा के विरोधी aajtak।.n ने कामदेव सिंह के बेटे राजकुमार सिंह से भी बात की। उन्होंने कहा कि मेरे पिता की लड़ाई कानून या किसी खास व्यक्ति के खिलाफ नहीं थी। वो मुख्य तौर पर कम्युनिस्टों की सामंती विचारधारा के विरोधी थे।उस दौर में जितने भी सामंती लोग थे वो कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़कर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त किए हुए थे। वो गरीब और पिछड़ी जाति के लोगों पर अत्याचार करते थे। मेरे पिता उस विचारधारा के खिलाफ थे। अगर वो किसी तरह के अपराधी या दबंग होते तो गरीब लोगों के बीच में उनकी स्वीकार्यता नहीं होती। आप किसी भी तबके के शोषित वर्ग के लोगों से बात कर लीजिए, उनके मन में मेरे पिता के खिलाफ कोई नफरत नहीं है। राजकुमार सिंह ने कहा कि एक जमाने में चंद्रशेखर सिंह जैसे नेता थे जिनकी वजह से लोग कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े। क्योंकि उन्होंने विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम किया। लेकिन बाद में जब पार्टी सत्ता में आई और उनके समर्थक आए तो वो पार्टी की मूल विचारधारा और सिद्धांत से भटकने लगे। ऐसा लगने लगा कि कम्युनिस्ट पार्टी राजनीति नहीं कर रही है बल्कि एक संगठित अपराध में घुस रही है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट एक दूसरे के विरोधी थे। ऐसे में कामदेव सिंह कांग्रेस के प्रभाव में आ गए थे।पुलिस एनकाउंटर नहीं, हत्या की गई
पुलिस एनकाउंटर को लेकर राजकुमार सिंह का कहना है कि उनका कोई एनकाउंटर नहीं हुआ था। बल्कि किसी व्यक्ति के इशारे पर उनकी हत्या की गई थी। उन्होंने कहा- ‘जिस दिन मेरे पिता की हत्या हुई थी वो सरकारी काम पर थे। गंगा नदी के तट पर बांध बनाने का काम करवा रहे थे। लेकिन गलत निशानदेही पर वो पुलिस का शिकार बन गए। आरोप लगाया गया कि उनकी एक बड़ी टीम थी, लेकिन पुलिस ने क्या उनकी हत्या के बाद किसी अन्य को व्यक्ति को दबोचा? क्या किसी सरगना का खुलासा हुआ? नहीं। क्योंकि उन्हें राजनीतिक तरीके से निशाना बनाया गया’। गांजा तस्करी के आरोप पर राजकुमार सिंह ने कहा कि उस दौर में नेपाल में गांजे की खेती पूरी तरह से वैध थी। दूसरी बात वो हर तरह के नशे के खिलाफ थे। उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी चाय तक नहीं पी। उनके जानने वाले लोग भी कभी उनके सामने बीड़ी, सिगरेट या तंबाकू का सेवन नहीं करते थे। ऐसे में यह कहना कि वह गांजा की तस्करी करते थे, पूरी तरह बेबुनियाद है। वो ठेकेदारी का काम करते थे। टेपरिकॉर्डर, कपड़े आदि मंगवाने का काम भी करते थे।
इन सबके लिए कामदेव सिंह को जिम्मेदार माना गया, जबकि उनके समर्थक कहते हैं कि कम्युनिस्टों की हिंसा का विरोध किसी और तरीके से करना मुश्किल था। बाद में समीकरण ऐसे बने कि केंद्र से लेकर राज्य तक उनपर शिकंजा कसा जाने लगा। हत्या और तस्करी का आरोप लगा। उनके धंधे बंद हुए और फिर एनकाउंटर भी हो गया। पूर्व विधायक और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) नेता राजेन्द्र राजन कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी से उनकी कोई राजनीतिक प्रतिद्वंदिता नहीं थी। लेकिन वो गांजे की तस्करी करते थे। 1969 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध किया। उस समय भोला सिंह सीपीआई के कैंडिडेट थे। उस दौर में कामदेव सिंह ने सोनापुर, नयागांव के बूथ पर हंगामा किया, पोलिंग एजेंटों को भगा दिया और बूथ छाप दिया।
बेगूसराय के 34 बूथों पर किया था कब्जाराजेंद्र राजन 1969 के बाद 1971 के लोकसभा चुनाव के बारे में बताते हैं कि तब योगेंद्र शर्मा सीपीआई के उम्मीदवार थे और श्यामनंदन मिश्रा कांग्रेस के। सरयू प्रसाद सिंह ने श्यामनंदन मिश्रा को कामदेव सिंह से मिलवाया। कामदेव सिंह ने बेगूसराय के 34 बूथों पर कब्जा किया और कांग्रेस को जीत दिलाई। हालांकि योगेंद्र शर्मा बेगूसराय की 6 में से 5 विधानसभा सीटों पर आगे थे। इसके बाद बेगूसराय में कामदेव सिंह और कम्युनिस्ट पार्टी आमने-सामने आ गए। 1971 में ही कामदेव सिंह के लोगों ने एक संघर्ष के दौरान 13 साल के बच्चे की हत्या कर दी थी। कामदेव पर हत्या का केस दर्ज हुआ। एक साल बाद 2 और हत्याएं हुईं। जिसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने उनके खिलाफ राजनीतिक आंदोलन शुरू किया।
सूर्य नारायण सिंह ने संसद में भी उठाया मुद्दातत्कालीन जिला मंत्री सूर्य नारायण सिंह के नेतृत्व में पूरी पार्टी सड़क पर आई। बाद में जब सूर्य नारायण सिंह सांसद बने तो उन्होंने इस मुद्दे को संसद में भी उठाया। इसके बाद तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने टास्कफोर्स बनवाई और कामदेव सिंह पर शिकंजा कसा जाने लगा। उनके कारोबार बंद करा दिए गए और कामदेव सिंह को झुकने पर मजबूर कर दिया गया। कामदेव सिंह ने समझौता कर लिया कि वह राजनीतिक दखल नहीं देंगे, बूथ पर कब्जा नहीं करेंगे। क्या कामदेव से कम्युनिस्ट चिढ़ते थे इसके जवाब में राजेन्द्र राजन कहते है कि कामदेव सिंह से उनकी निजी लड़ाई कभी नहीं रही। उनके परिवार में कई लोगों ने पढ़ाई लिखाई कर अच्छा मुकाम हासिल किया। उनके बेटे दिल्ली में पढ़े और आज सफल व्यवसायी हैं।
1980 में मारे गए सम्राट कामदेव सिंहसाल 1980 में सम्राट कामदेव सिंह पुलिस एनकाउंटर में मारे गए। बेगूसराय के स्थानीय पत्रकार अशांत भोला इसके बाद उनके गांव मटिहानी पहुंचे थे। उन्होंने बताया कि ''मैं उस वक्त गांव जाने से डर रहा था। क्योंकि पूरे बेगूसराय में एक अजीब तरह की शांति थी। मैं एक रिक्शेवाले को लेकर गांव पहुंचा। पूरे गांव के लोग शोकाकुल थे। थोड़ी देर परिवार वालों से बात करने के बाद मैं वह जगह देखने गया, जहां पर पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों ने उनका एनकाउंटर किया था।''अशांत भोला ने बताया, 'मैंने नदी किनारे बसे पिछड़ी जाति के लोगों से मुलाकात की। सभी रो रहे थे। मैंने पूछा आप क्यों रो रहे हैं। एक औरत जोर-जोर से विलाप करने लगी। उसने कहा कि उसका ''भगवान'' चला गया।
मैंने कहा कि वो तो अपराधी थे तस्करी करते थे। इसके जवाब में औरत ने कहा कि जबतक 'मालिक' जिंदा थे हमें किसी बात की चिंता नहीं थी। हमारे घरों में किसी का जन्म हो, कोई मर जाए या कोई बीमार हो, 'मालिक' ही देखते थे। जब भी वो अपने घर आते थे, हमलोगों से मुलाकात करते थे। हमारी तकलीफ पूछते थे और तुरंत निपटारा भी करते थे। अब हमें कौन देखेगा।'अशांत भोला ने बताया कि कामदेव सिंह भूमिहार थे। जो बेगूसराय में दबंग माने जाते रहे हैं। लेकिन निचली मानी जाने वाली जातियों में भी उनकी स्वीकार्यता थी।
कम्युनिस्टों की सामंती विचारधारा के विरोधी aajtak।.n ने कामदेव सिंह के बेटे राजकुमार सिंह से भी बात की। उन्होंने कहा कि मेरे पिता की लड़ाई कानून या किसी खास व्यक्ति के खिलाफ नहीं थी। वो मुख्य तौर पर कम्युनिस्टों की सामंती विचारधारा के विरोधी थे।उस दौर में जितने भी सामंती लोग थे वो कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़कर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त किए हुए थे। वो गरीब और पिछड़ी जाति के लोगों पर अत्याचार करते थे। मेरे पिता उस विचारधारा के खिलाफ थे। अगर वो किसी तरह के अपराधी या दबंग होते तो गरीब लोगों के बीच में उनकी स्वीकार्यता नहीं होती। आप किसी भी तबके के शोषित वर्ग के लोगों से बात कर लीजिए, उनके मन में मेरे पिता के खिलाफ कोई नफरत नहीं है। राजकुमार सिंह ने कहा कि एक जमाने में चंद्रशेखर सिंह जैसे नेता थे जिनकी वजह से लोग कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े। क्योंकि उन्होंने विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम किया। लेकिन बाद में जब पार्टी सत्ता में आई और उनके समर्थक आए तो वो पार्टी की मूल विचारधारा और सिद्धांत से भटकने लगे। ऐसा लगने लगा कि कम्युनिस्ट पार्टी राजनीति नहीं कर रही है बल्कि एक संगठित अपराध में घुस रही है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट एक दूसरे के विरोधी थे। ऐसे में कामदेव सिंह कांग्रेस के प्रभाव में आ गए थे।पुलिस एनकाउंटर नहीं, हत्या की गई
पुलिस एनकाउंटर को लेकर राजकुमार सिंह का कहना है कि उनका कोई एनकाउंटर नहीं हुआ था। बल्कि किसी व्यक्ति के इशारे पर उनकी हत्या की गई थी। उन्होंने कहा- ‘जिस दिन मेरे पिता की हत्या हुई थी वो सरकारी काम पर थे। गंगा नदी के तट पर बांध बनाने का काम करवा रहे थे। लेकिन गलत निशानदेही पर वो पुलिस का शिकार बन गए। आरोप लगाया गया कि उनकी एक बड़ी टीम थी, लेकिन पुलिस ने क्या उनकी हत्या के बाद किसी अन्य को व्यक्ति को दबोचा? क्या किसी सरगना का खुलासा हुआ? नहीं। क्योंकि उन्हें राजनीतिक तरीके से निशाना बनाया गया’। गांजा तस्करी के आरोप पर राजकुमार सिंह ने कहा कि उस दौर में नेपाल में गांजे की खेती पूरी तरह से वैध थी। दूसरी बात वो हर तरह के नशे के खिलाफ थे। उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी चाय तक नहीं पी। उनके जानने वाले लोग भी कभी उनके सामने बीड़ी, सिगरेट या तंबाकू का सेवन नहीं करते थे। ऐसे में यह कहना कि वह गांजा की तस्करी करते थे, पूरी तरह बेबुनियाद है। वो ठेकेदारी का काम करते थे। टेपरिकॉर्डर, कपड़े आदि मंगवाने का काम भी करते थे।