AajTak : Sep 16, 2020, 08:31 AM
बिहार चुनाव की दास्तान राजनीति के अनूठे प्रयोगों से भरी है। यहां कुछ भी संभव है। यहां नीतीश के साथ लालू संभव हैं, लालू के साथ पासवान संभव हैं, लालू और बीजेपी का साथ भी मुमकिन है। यहां किसी के लिए रेड कार्पेट बिछाया जाता है तो कुर्सी तक पहुंच चुके किसी के लिए लंगड़ी लगाई जाती है। साल 2005 ऐसा साल था जब एक वर्ष में बिहार में दो विधानसभा चुनाव हुए। इस चुनाव ने 1990 से बिहार की सत्ता पर काबिज लालू यादव को पाटलिपुत्र से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इस चुनाव में बिहार में 15 साल तक सत्ता चला चुके लालू ऐसे बिखरे कि अब तक अपने दम पर बिहार की सत्ता में वापसी नहीं कर सके। उस दौरान लालू को सत्ता से बाहर करने में रामविलास पासवान की अहम भूमिका रही। तब पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री का ऐसा कार्ड चला, जिसकी काट लालू के पास नहीं थी। या यूं कहें कि तब लालू ने पासवान के इस ऑफर को तवज्जो नहीं दी। पासवान के इस ऑफर की चर्चा करेंगे, पहले तत्कालीन परिदृश्य समझ लें। 2005 के चुनाव से पहले 2000 की बात करें तो तब बिहार से झारखंड अलग नहीं हुआ था। साल 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में लालू का M+Y समीकरण एक बार फिर काम कर गया था। लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल 293 सीटों पर लड़ी और 124 सीट लाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। तब 324 सदस्यों वाली विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 163 सीटें चाहिए थीं। नीतीश मार्च 2000 में 7 दिनों के लिए सीएम बने लेकिन बहुमत का जुगाड़ नहीं कर पाए नतीजन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद आरजेडी ने निर्दलियों और दूसरे दलों के सहयोग से बहुमत जुटाया और राबड़ी देवी के नेतृत्व में बिहार में राजद की सरकार बनी।
दिल्ली से वाजपेयी की विदाई के बाद बिहार में चुनावफरवरी 2005 में ऐसी स्थिति में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए। इंडिया शाइनिंग नारे का नुकसान उठाकर वाजपेयी दिल्ली की सत्ता से बेदखल हो चुके थे। केंद्र में यूपीए वन की सरकार थी, लालू देश के रेल मंत्री थे, इसी सरकार में रामविलास पासवान उर्वरक मंत्री थे। इस चुनाव को लेकर पासवान महात्वाकांक्षी थे, उन्होंने अलग चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। यानी कि दिल्ली में तो वे लालू के साथ डॉ मनमोहन सिंह की कैबिनेट में थे, लेकिन बिहार में लालू के खिलाफ ही अपना उम्मीदवार उतारने जा रहे थे।
पासवान की चुनौती को लालू ने हल्के में लियापासवान की चुनौती को लालू ने हल्के में लिया, उनकी पार्टी पिछले 15 साल से सत्ता में थी। लालू को अपने MY समीकरण, अपनी हनक और रुतबे पर भरोसा था। उन्होंने पासवान की अकेले लड़ने की चुनौती स्वीकार कर ली। इधर रामविलास पासवान इस चुनाव के लिए किलेबंदी करने लगे। उनकी पार्टी में कई बाहुबली नेता आ गए थे और लालू कांग्रेस से नाराज कुछ सवर्ण छत्रप भी पासवान की छत्र छाया में आ गए।
जूनियर पार्टनर की भूमिका में थी कांग्रेसतत्कालीन एलजेपी अध्यक्ष ने केंद्र में कांग्रेस से दोस्ती का फर्ज यहां निभाया। उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ तो उम्मीदवार नहीं उतारे, लेकिन आरजेडी को तगड़ी चुनौती दी। 2005 के विधानसभा इलेक्शन में रामविलास पासवान की पार्टी 178 सीटों पर चुनाव लड़ी। जबकि लालू यादव की पार्टी 210 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी। दिल्ली में बिग ब्रदर कांग्रेस यहां जूनियर पार्टनर की भूमिका में थी। उसने 84 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। बता दें कि ये एलजेपी का पहला चुनाव था। ये बिहार की राजनीति को सिरे से बदलने वाला था।
किंगमेकर तो बने पासवान लेकिन।।।27 फरवरी 2005 को इस चुनाव के नतीजे आए। चुनाव परिणाम ने सबको चौंका दिया। 15 साल से बिहार की सत्ता की धुरी रही आरजेडी बिहार की सत्ता से बाहर हो गई और 2015 में नीतीश के साथ की पारी को छोड़ दें तो अबतक बाहर ही है। आरजेडी को 2005 के इस चुनाव में 75 सीटें हासिल हुई। 84 सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस 10 सीटें जीती और लालू को चुनौती देने वाले पासवान 29 सीट जीतकर किंगमेकर बने। इधर बीजेपी को 37 और नीतीश की पार्टी जेडीयू को 55 सीटें मिली। ये स्पष्ट रूप से एक खंडित जनादेश था। हां लेकिन अगर पासवान लालू को समर्थन देते तो आरजेडी लेफ्ट कांग्रेस और निर्दलीय के साथ मिलकर सरकार बना सकती थी, लेकिन धुरंधर पासवान ऐसा चाहते कहां थे।
सरकार बनाने की शुरू हुई कोशिश नतीजों पर मंथन के बाद बिहार में सरकार बनाने की एक ऐसी कोशिश शुरू हुई जो कभी परवान नहीं चढ़ सकी। त्रिशंकू विधानसभा में पासवान 29 विधायकों के साथ जिस किसी को चाहें सीएम बनाने की हैसियत रखते थे। जब उनके पास RJD को समर्थन देने का प्रस्ताव लाया गया तो उन्होंने ऐसी शर्त रखी जिसने लालू के सामाजिक न्याय बनाम पारिवारिक मोह की परीक्षा ले ली।
मुस्लिम मुख्यमंत्री की जिदरामविलास पासवान ने कहा कि वे आरजेडी या किसी दल या गठबंधन को समर्थन तभी देंगे जब वे बिहार का मुख्यमंत्री किसी मुस्लिम को बनाएंगे। ये एक ऐसा प्रस्ताव था जिसने लालू यादव को संकट में डाल दिया। पटना के वरिष्ठ पत्रकार सुनील पांडेय कहते हैं कि पासवान ने लालू यादव के कथित मुस्लिम प्रेम का टेस्ट ले लिया। अगर लालू इस प्रस्ताव को खारिज करते तो लालू के मुस्लिमों का मसीहा होने की पोल खुल जाती और अगर वे इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो बिहार के सीएम की कुर्सी उनके परिवार के हाथ से चली जाती, जिस पर उनकी पत्नी राबड़ी देवी और वे खुद काबिज रहे थे। आखिरकार पासवान के इस प्रस्ताव को गिरना ही था। वरिष्ठ पत्रकार सुनील पांडे कहते हैं, 'लालू की सत्ता निष्ठा सत्ता के साथ थी, व्यक्ति या समूह के साथ नहीं, और आज भी ऐसा ही चल रहा है। रघुवंश बाबू का एपिसोड इसका साक्षी है, जहां एक बार फिर से लालू यादव ने अपनी पार्टी की कमान को अपने ही परिवार में रखना उचित समझा।' सुनील पांडे मानते हैं कि पासवान अपनी इस पेशकश से लालू की पोल खोलने में सफल रहे और इसका खमियाजा उन्हें 7 महीने बाद हुए चुनाव में भुगतना पड़ा, जब उनका काफी मुस्लिम वोट नीतीश की ओर शिफ्ट हो गया।
।।।लेकिन किंगमेकर नहीं बन पाए पासवानइस चुनाव में बड़ी संख्या में बाहुबली और महात्वाकांक्षी नेता एलजेपी के टिकट पर जीतकर आए थे। सरकार बनने पर उन्हें काफी उम्मीदें थी। वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने बीबीसी के एक लेख में कहा है कि दरअसल पासवान को मिली ये ताकत 'उधार' की ताकत थी। पासवान को अपने दलित-पिछड़े समीकरण के बल पर ज्यादा वोट नहीं मिला था। उन्हें कुछ बाहुबलियों और लालू-कांग्रेस से नाराज 'सवर्ण-दिग्गजों' के दमपर वोट मिला था। इधर सरकार न बनता देख पासवान के ये विधायक अधीर होने लगे। पासवान से मान-मनौव्वल की कोशिश की गई, लेकिन वे डिगे नहीं। इधर लालू को भी राबड़ी के बजाय मुस्लिम चेहरा मंजूर नहीं था। लगातार हो रही देरी के बाद एलजेपी में हलचल मच गई। पार्टी के कई विधायक नीतीश खेमे की ओर शिफ्ट होने लगे।
तब सरदार बूटा सिंह थे बिहार के राज्यपालबिहार में राजनीतिक अस्थिरता के बीच होर्स ट्रेडिंग की भयानक स्थिति पैदा हो गई। 10 मार्च 2005 को तत्कालीन राबड़ी सरकार का कार्यकाल खत्म हो रहा था और सरकार की सूरत बन नहीं पा रही थी। एलजेपी को लगातार पार्टी में टूट का डर सता रहा था। इसी उधेड़बुन में राज्यपाल बूटा सिंह ने 7 मार्च 2005 को राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम रूस में थे। रूस से ही फैक्स के जरिए डॉ कलाम से राष्ट्रपति शासन पर सहमति ली गई और इस विधानसभा को भंग कर दिया गया। इसके साथ ही बिहार में एक और चुनाव का मार्ग प्रशस्त हो गया। अक्टूबर 2005 में हुए इस चुनाव ने लालू यादव की पार्टी के लिए बिहार में विपक्ष की सीट भी पक्की कर दी। कल्पना कीजिए फरवरी 2005 में लालू और पासवान के मिलन से बिहार की ये सरकार बन गई होती तो क्या होता। तो शायद आज नीतीश कुमार अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं होते ।
दिल्ली से वाजपेयी की विदाई के बाद बिहार में चुनावफरवरी 2005 में ऐसी स्थिति में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए। इंडिया शाइनिंग नारे का नुकसान उठाकर वाजपेयी दिल्ली की सत्ता से बेदखल हो चुके थे। केंद्र में यूपीए वन की सरकार थी, लालू देश के रेल मंत्री थे, इसी सरकार में रामविलास पासवान उर्वरक मंत्री थे। इस चुनाव को लेकर पासवान महात्वाकांक्षी थे, उन्होंने अलग चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। यानी कि दिल्ली में तो वे लालू के साथ डॉ मनमोहन सिंह की कैबिनेट में थे, लेकिन बिहार में लालू के खिलाफ ही अपना उम्मीदवार उतारने जा रहे थे।
पासवान की चुनौती को लालू ने हल्के में लियापासवान की चुनौती को लालू ने हल्के में लिया, उनकी पार्टी पिछले 15 साल से सत्ता में थी। लालू को अपने MY समीकरण, अपनी हनक और रुतबे पर भरोसा था। उन्होंने पासवान की अकेले लड़ने की चुनौती स्वीकार कर ली। इधर रामविलास पासवान इस चुनाव के लिए किलेबंदी करने लगे। उनकी पार्टी में कई बाहुबली नेता आ गए थे और लालू कांग्रेस से नाराज कुछ सवर्ण छत्रप भी पासवान की छत्र छाया में आ गए।
जूनियर पार्टनर की भूमिका में थी कांग्रेसतत्कालीन एलजेपी अध्यक्ष ने केंद्र में कांग्रेस से दोस्ती का फर्ज यहां निभाया। उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ तो उम्मीदवार नहीं उतारे, लेकिन आरजेडी को तगड़ी चुनौती दी। 2005 के विधानसभा इलेक्शन में रामविलास पासवान की पार्टी 178 सीटों पर चुनाव लड़ी। जबकि लालू यादव की पार्टी 210 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी। दिल्ली में बिग ब्रदर कांग्रेस यहां जूनियर पार्टनर की भूमिका में थी। उसने 84 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। बता दें कि ये एलजेपी का पहला चुनाव था। ये बिहार की राजनीति को सिरे से बदलने वाला था।
किंगमेकर तो बने पासवान लेकिन।।।27 फरवरी 2005 को इस चुनाव के नतीजे आए। चुनाव परिणाम ने सबको चौंका दिया। 15 साल से बिहार की सत्ता की धुरी रही आरजेडी बिहार की सत्ता से बाहर हो गई और 2015 में नीतीश के साथ की पारी को छोड़ दें तो अबतक बाहर ही है। आरजेडी को 2005 के इस चुनाव में 75 सीटें हासिल हुई। 84 सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस 10 सीटें जीती और लालू को चुनौती देने वाले पासवान 29 सीट जीतकर किंगमेकर बने। इधर बीजेपी को 37 और नीतीश की पार्टी जेडीयू को 55 सीटें मिली। ये स्पष्ट रूप से एक खंडित जनादेश था। हां लेकिन अगर पासवान लालू को समर्थन देते तो आरजेडी लेफ्ट कांग्रेस और निर्दलीय के साथ मिलकर सरकार बना सकती थी, लेकिन धुरंधर पासवान ऐसा चाहते कहां थे।
सरकार बनाने की शुरू हुई कोशिश नतीजों पर मंथन के बाद बिहार में सरकार बनाने की एक ऐसी कोशिश शुरू हुई जो कभी परवान नहीं चढ़ सकी। त्रिशंकू विधानसभा में पासवान 29 विधायकों के साथ जिस किसी को चाहें सीएम बनाने की हैसियत रखते थे। जब उनके पास RJD को समर्थन देने का प्रस्ताव लाया गया तो उन्होंने ऐसी शर्त रखी जिसने लालू के सामाजिक न्याय बनाम पारिवारिक मोह की परीक्षा ले ली।
मुस्लिम मुख्यमंत्री की जिदरामविलास पासवान ने कहा कि वे आरजेडी या किसी दल या गठबंधन को समर्थन तभी देंगे जब वे बिहार का मुख्यमंत्री किसी मुस्लिम को बनाएंगे। ये एक ऐसा प्रस्ताव था जिसने लालू यादव को संकट में डाल दिया। पटना के वरिष्ठ पत्रकार सुनील पांडेय कहते हैं कि पासवान ने लालू यादव के कथित मुस्लिम प्रेम का टेस्ट ले लिया। अगर लालू इस प्रस्ताव को खारिज करते तो लालू के मुस्लिमों का मसीहा होने की पोल खुल जाती और अगर वे इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो बिहार के सीएम की कुर्सी उनके परिवार के हाथ से चली जाती, जिस पर उनकी पत्नी राबड़ी देवी और वे खुद काबिज रहे थे। आखिरकार पासवान के इस प्रस्ताव को गिरना ही था। वरिष्ठ पत्रकार सुनील पांडे कहते हैं, 'लालू की सत्ता निष्ठा सत्ता के साथ थी, व्यक्ति या समूह के साथ नहीं, और आज भी ऐसा ही चल रहा है। रघुवंश बाबू का एपिसोड इसका साक्षी है, जहां एक बार फिर से लालू यादव ने अपनी पार्टी की कमान को अपने ही परिवार में रखना उचित समझा।' सुनील पांडे मानते हैं कि पासवान अपनी इस पेशकश से लालू की पोल खोलने में सफल रहे और इसका खमियाजा उन्हें 7 महीने बाद हुए चुनाव में भुगतना पड़ा, जब उनका काफी मुस्लिम वोट नीतीश की ओर शिफ्ट हो गया।
।।।लेकिन किंगमेकर नहीं बन पाए पासवानइस चुनाव में बड़ी संख्या में बाहुबली और महात्वाकांक्षी नेता एलजेपी के टिकट पर जीतकर आए थे। सरकार बनने पर उन्हें काफी उम्मीदें थी। वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने बीबीसी के एक लेख में कहा है कि दरअसल पासवान को मिली ये ताकत 'उधार' की ताकत थी। पासवान को अपने दलित-पिछड़े समीकरण के बल पर ज्यादा वोट नहीं मिला था। उन्हें कुछ बाहुबलियों और लालू-कांग्रेस से नाराज 'सवर्ण-दिग्गजों' के दमपर वोट मिला था। इधर सरकार न बनता देख पासवान के ये विधायक अधीर होने लगे। पासवान से मान-मनौव्वल की कोशिश की गई, लेकिन वे डिगे नहीं। इधर लालू को भी राबड़ी के बजाय मुस्लिम चेहरा मंजूर नहीं था। लगातार हो रही देरी के बाद एलजेपी में हलचल मच गई। पार्टी के कई विधायक नीतीश खेमे की ओर शिफ्ट होने लगे।
तब सरदार बूटा सिंह थे बिहार के राज्यपालबिहार में राजनीतिक अस्थिरता के बीच होर्स ट्रेडिंग की भयानक स्थिति पैदा हो गई। 10 मार्च 2005 को तत्कालीन राबड़ी सरकार का कार्यकाल खत्म हो रहा था और सरकार की सूरत बन नहीं पा रही थी। एलजेपी को लगातार पार्टी में टूट का डर सता रहा था। इसी उधेड़बुन में राज्यपाल बूटा सिंह ने 7 मार्च 2005 को राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम रूस में थे। रूस से ही फैक्स के जरिए डॉ कलाम से राष्ट्रपति शासन पर सहमति ली गई और इस विधानसभा को भंग कर दिया गया। इसके साथ ही बिहार में एक और चुनाव का मार्ग प्रशस्त हो गया। अक्टूबर 2005 में हुए इस चुनाव ने लालू यादव की पार्टी के लिए बिहार में विपक्ष की सीट भी पक्की कर दी। कल्पना कीजिए फरवरी 2005 में लालू और पासवान के मिलन से बिहार की ये सरकार बन गई होती तो क्या होता। तो शायद आज नीतीश कुमार अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं होते ।