AajTak : Jun 27, 2020, 08:48 AM
कोरोना वायरस की वैक्सीन कब बनेगी? ये सवाल सबके मन में है लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं। सबको जल्दबाजी है कि वैक्सीन आए और बीमारी से निजात मिले। पर अब डॉक्टरों ने चेतावनी दी है कि अगर समय से पहले और जल्दबाजी में कोई कोरोना वैक्सीन बाजार में लाई गई तो उसके भयावह नुकसान हो सकते हैं। जैसा कि 1955 में हुआ था।
वर्ष 1955 में साल्क पोलियो की वैक्सीन जल्दबाजी में जारी कर दी गई थी। उसके बहुत बुरे परिणाम सामने आए थे। उस समय बड़े स्तर पर वैक्सीन बनाई गई। उसमें रह गई थोड़ी सी गड़बड़ी की वजह से 70 हजार बच्चों को पोलियो हो गया था। इतना ही नहीं, 10 बच्चों की मौत हुई थी। 164 बच्चों के शरीर पर दुष्प्रभाव देखने को मिले थे। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के लैंगोन मेडिकल सेंटर एंड बेलुवे हॉस्पिटल के डॉ। ब्रिट ट्रोजन कहते हैं कि अगर बाजार में आई पहली वैक्सीन ने 1955 जैसी घटना दोहराई तो लोगों का डॉक्टरों और चिकित्सा व्यवस्था से भरोसा उठ जाएगा। यह कोई चांदी की गोली नहीं है कि लिया और ठीक हो गए। वैक्सीन के बनाने और उसके 100 फीसदी सुरक्षित होने में बहुत अंतर है। डॉ। ब्रिट ट्रोजन ने कहा कि जब तक 100 फीसदी सुरक्षित होने का प्रमाण न मिले तब तक कोरोना वायरस की वैक्सीन को बाजार में नहीं लाना चाहिए। इसे लेकर किसी भी प्रकार की राजनीति नहीं होनी चाहिए। न ही राजनीतिक दबाव में दवा रिलीज होनी चाहिए। ऐसा हुआ तो गंभीर परिणाम होंगे। न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी खबर के अनुसार दुनियाभर में वैक्सीन बनाने के लिए मशहूर डॉ। पॉल ए। ऑफिट का कहना है कि कोई भी वैक्सीन 100 फीसदी बीमारी को ठीक नहीं करती है। ऐसा फ्लू की वैक्सीन के साथ हो रहा है। क्योंकि जिन लोगों को फ्लू की वैक्सीन दी गई है, उन्हें कुछ बीमरियां हो सकती हैं। डॉ। ऑफिट ने बताया कि जिन वैक्सीन का परीक्षण चल रहा है, वो गंभीर संक्रमण को रोकने में मदद कर रही है। उस वायरस को या बीमारी को खत्म नहीं कर रही हैं। कई बार कोई वैक्सीन 50 फीसदी भी परफॉर्म करती है, तो भी उसे स्वीकृति दे दी जाती है।दोनों एक्सपर्ट्स का मानना है कि कुछ लोगों पर किए जा रहे टेस्ट से किसी भी वैक्सीन के 100 फीसदी कारगर और सुरक्षित होने का प्रमाण नहीं मिलता। जब तक कि उसे लाखों लोगों पर टेस्ट नहीं किया जाता। इस प्रक्रिया में कई साल लग सकते हैं। कोरोना वायरस का दौर सामान्य नहीं है, इसलिए कई वैक्सीन जल्दबाजी में टेस्ट की जा रही हैं। ऐसे में गलतियों के बढ़ने का जोखिम ज्यादा है। हालांकि, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के डायरेक्टर डॉक्टर फ्रांसिस कॉलिन्स बताते हैं कि लोगों को असरदार वैक्सीन देने की जल्दी में हम सुरक्षा के साथ समझौता नहीं करेंगे।वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया बहुत लंबी है। पहले वैक्सीन को प्रयोगशालाओं में जानवरों पर टेस्ट किया जाता है। फिर यह देखा जाता है कि वैक्सीन बीमारी को रोकने में कितना कारगर है। इसके ह्यूमन ट्रायल शुरू होते हैं। जिसमें सामान्य तौर पर दो चरण रखे जाते हैं। पहले और दूसरे चरण में 100 से 1000 इंसानों पर ट्रायल होता है। यहां देखा जाता है कि वैक्सीन सुरक्षित है कि नहीं। फिर आता है तीसरा चरण जिसमें लाखों लोगों पर ट्रायल किया जाता है। इसमें वैक्सीन की सुरक्षा और प्रभाव दोनों का असर देखा जाता है। डॉ। ऑफिट उम्मीद करते हैं कि कोरोना वायरस की वैक्सीन कम से कम 70 फीसदी असरदार होनी ही चाहिए। क्योंकि हमें यह नहीं पता चलेगा कि अगले कुछ महीनों इम्यूनिटी कितनी रहेगी। अमेरिकी सरकार के ऑपरेशन वॉर्प स्पीड के तहत फैक्ट्रियां असरदार वैक्सीन के करोड़ों डोज बनाने की तैयारी में हैं। अगर एक या दो अप्रूव हो गईं तो वैक्सीन भेजने में और देरी न हो। यही तरीका 1950 में तैयार हुई साल्क वैक्सीन बनाने में अपनाया गया था।
वर्ष 1955 में साल्क पोलियो की वैक्सीन जल्दबाजी में जारी कर दी गई थी। उसके बहुत बुरे परिणाम सामने आए थे। उस समय बड़े स्तर पर वैक्सीन बनाई गई। उसमें रह गई थोड़ी सी गड़बड़ी की वजह से 70 हजार बच्चों को पोलियो हो गया था। इतना ही नहीं, 10 बच्चों की मौत हुई थी। 164 बच्चों के शरीर पर दुष्प्रभाव देखने को मिले थे। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के लैंगोन मेडिकल सेंटर एंड बेलुवे हॉस्पिटल के डॉ। ब्रिट ट्रोजन कहते हैं कि अगर बाजार में आई पहली वैक्सीन ने 1955 जैसी घटना दोहराई तो लोगों का डॉक्टरों और चिकित्सा व्यवस्था से भरोसा उठ जाएगा। यह कोई चांदी की गोली नहीं है कि लिया और ठीक हो गए। वैक्सीन के बनाने और उसके 100 फीसदी सुरक्षित होने में बहुत अंतर है। डॉ। ब्रिट ट्रोजन ने कहा कि जब तक 100 फीसदी सुरक्षित होने का प्रमाण न मिले तब तक कोरोना वायरस की वैक्सीन को बाजार में नहीं लाना चाहिए। इसे लेकर किसी भी प्रकार की राजनीति नहीं होनी चाहिए। न ही राजनीतिक दबाव में दवा रिलीज होनी चाहिए। ऐसा हुआ तो गंभीर परिणाम होंगे। न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी खबर के अनुसार दुनियाभर में वैक्सीन बनाने के लिए मशहूर डॉ। पॉल ए। ऑफिट का कहना है कि कोई भी वैक्सीन 100 फीसदी बीमारी को ठीक नहीं करती है। ऐसा फ्लू की वैक्सीन के साथ हो रहा है। क्योंकि जिन लोगों को फ्लू की वैक्सीन दी गई है, उन्हें कुछ बीमरियां हो सकती हैं। डॉ। ऑफिट ने बताया कि जिन वैक्सीन का परीक्षण चल रहा है, वो गंभीर संक्रमण को रोकने में मदद कर रही है। उस वायरस को या बीमारी को खत्म नहीं कर रही हैं। कई बार कोई वैक्सीन 50 फीसदी भी परफॉर्म करती है, तो भी उसे स्वीकृति दे दी जाती है।दोनों एक्सपर्ट्स का मानना है कि कुछ लोगों पर किए जा रहे टेस्ट से किसी भी वैक्सीन के 100 फीसदी कारगर और सुरक्षित होने का प्रमाण नहीं मिलता। जब तक कि उसे लाखों लोगों पर टेस्ट नहीं किया जाता। इस प्रक्रिया में कई साल लग सकते हैं। कोरोना वायरस का दौर सामान्य नहीं है, इसलिए कई वैक्सीन जल्दबाजी में टेस्ट की जा रही हैं। ऐसे में गलतियों के बढ़ने का जोखिम ज्यादा है। हालांकि, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के डायरेक्टर डॉक्टर फ्रांसिस कॉलिन्स बताते हैं कि लोगों को असरदार वैक्सीन देने की जल्दी में हम सुरक्षा के साथ समझौता नहीं करेंगे।वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया बहुत लंबी है। पहले वैक्सीन को प्रयोगशालाओं में जानवरों पर टेस्ट किया जाता है। फिर यह देखा जाता है कि वैक्सीन बीमारी को रोकने में कितना कारगर है। इसके ह्यूमन ट्रायल शुरू होते हैं। जिसमें सामान्य तौर पर दो चरण रखे जाते हैं। पहले और दूसरे चरण में 100 से 1000 इंसानों पर ट्रायल होता है। यहां देखा जाता है कि वैक्सीन सुरक्षित है कि नहीं। फिर आता है तीसरा चरण जिसमें लाखों लोगों पर ट्रायल किया जाता है। इसमें वैक्सीन की सुरक्षा और प्रभाव दोनों का असर देखा जाता है। डॉ। ऑफिट उम्मीद करते हैं कि कोरोना वायरस की वैक्सीन कम से कम 70 फीसदी असरदार होनी ही चाहिए। क्योंकि हमें यह नहीं पता चलेगा कि अगले कुछ महीनों इम्यूनिटी कितनी रहेगी। अमेरिकी सरकार के ऑपरेशन वॉर्प स्पीड के तहत फैक्ट्रियां असरदार वैक्सीन के करोड़ों डोज बनाने की तैयारी में हैं। अगर एक या दो अप्रूव हो गईं तो वैक्सीन भेजने में और देरी न हो। यही तरीका 1950 में तैयार हुई साल्क वैक्सीन बनाने में अपनाया गया था।