Vikrant Shekhawat : May 25, 2021, 04:45 PM
बेंगलुरु। कोरोना के कहर के बाद देश म्यूकोरमाइकोसिस या ब्लैक फंगस महामारी से जूझ रहा है। इसके इलाज में प्रयुक्त होने वाली दवा की कमी कई मरीजों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन बी दवा फंगल इंफेक्शन से जूझ रहे मरीजों के लिए जीवनदायी है। ये दवा बाजार में लंबे समय से मौजूद है और म्यूकोरमाइकोसिस के इलाज में इसका इस्तेमाल होता रहा है, लेकिन कोरोना से उपजी स्थितियों ने दुर्लभ बीमारी ब्लैक फंगस को महामारी बना दिया। भारत में इस दवा के निर्माण के लिए बी। श्रीकांठा अन्नाप्पा बी। पई को श्रेय जाता है, जिन्होंने 2010-11 से इस दवा को देश में ही निर्मित करना शुरू किया।
दस साल पहले बी। श्रीकांठा अन्नाप्पा पई मुंबई स्थित भारत सीरम कंपनी में शोध और विकास विभाग के प्रमुख थे। अब जबकि लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन बी दवा लोगों के जीवनदायी साबित हो रही हैं, बी। पई खुद को कृतज्ञ महसूस करते हैं। उनका ताल्लुक कर्नाटक के उडुपी जिले में कुंडापुरा तालुक के गंगोल्ली गांव से हैं। बेंगलुरु जिले के सरकारी फॉर्मेसी कॉलेज से बी। फॉर्मा की पढ़ाई करने के बाद बी। पई ने मनिपाल यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की पढ़ाई पूरी की। बी। पई कहते हैं, "पढ़ाई के बाद कर्नाटक में नौकरी के मौके बहुत बेहतर नहीं थी। लिहाजा मैं मुंबई चला गया और अपनी बहन के पास रहने लगा और नौकरी की तलाश में लग गया। कई सारे इंटरव्यू देने के बाद भारत सीरम में नौकरी का मौका मिला।"बी। पई ने भारत सीरम में 17 साल तक नौकरी की। अमेरिकी कंपनी गिलियड साइंसेज के पास ब्लैक फंगी इंफेक्शन के इलाज में काम आने वाली दवा का पेटेंट था। 2008 में कंपनी के पेटेंट की अवधि खत्म हो गई। उस समय भारत के पास बेहतर टेक्नोलॉजी और उपकरणों की सुविधा नहीं थी, इसलिए दवा बनाने के लिए रिसर्च और विकास की बहुत आवश्यकता थी। ऐसे में भारत सीरम को अपनी दवा विकसित करने में 2 साल का लंबा समय लगा। लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन बी दवा के दोबारा बनाने की कोई एसओपी नहीं थी, कंपनी ने इस दवा को बनाने का केवल बेसिक फॉर्मूला शेयर किया था और वे केवल इतना बता सकते थे कि दवा सही बनी है या नहीं।बी। पई ने कहा, "ऐसे में हमें पूरा रिसर्च करना पड़ा और तब जाकर हम क्लिनिकल ट्रायल फेज के स्तर पर पहुंचे। ट्रायल के पहले हमें एफडीए और यूरोपियन मेडिकल एजेंसी से अनुमति भी लेनी पड़ी और फिर 2010-11 में दवा को फाइनली रिलीज किया गया।'लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन बी दवा और उसके प्रभाव को समझाते हुए बी। पई कहते हैं, "म्यूकोरमाइकोसिस मुख्य तौर पर फेफड़े, लीवर और स्पलीन को टारगेट करता है। एम्फोटेरिसिन बी, बीमारी के इलाज में प्रयुक्त होने वाले इंजेक्शन का मुख्य स्त्रोत है, जोकि बाजार में आसानी से उपलब्ध है।" उन्होंने कहा कि इंजेक्शन की 4 अलग-अलग तरह की वैरायटी विकसित की गई हैं। पहला इंजेक्शन एक परंपरागत उत्पाद है। दूसरा लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन इंजेक्शन, जोकि सामान्य इंजेक्शन के मुकाबले 75 फीसदी ज्यादा प्रभावी है। तीसरा लिपिड कॉम्प्लेक्स इंजेक्शन है, जोकि दूसरे इंजेक्शन के मुकाबले 20 गुणा ज्यादा प्रभावी है। आखिरी इंजेक्शन एम्फोटेरिसिन इमल्शन है, जोकि सामान्य इंजेक्शन के मुकाबले 150 गुणा ज्यादा प्रभावी है।बता दें कि लिपिड कॉम्प्लेक्स और एम्फोटेरिसिन के लिए बी। पई ने अपने नाम से पेटेंट ले रखा है। इसके अलावा उनके नाम पर 16 अन्य पेटेंट भी हैं, जिसमें वो दवा भी शामिल हैं, जो सर्जरी के दौरान एनेस्थीसिया देने के दौरान प्रोटोकॉल दवा के रूप में इस्तेमाल की जाती है। रिटायरमेंट के बाद बी। पई अपने परिवार के साथ मुंबई में जीवन बिता रहे हैं।
दस साल पहले बी। श्रीकांठा अन्नाप्पा पई मुंबई स्थित भारत सीरम कंपनी में शोध और विकास विभाग के प्रमुख थे। अब जबकि लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन बी दवा लोगों के जीवनदायी साबित हो रही हैं, बी। पई खुद को कृतज्ञ महसूस करते हैं। उनका ताल्लुक कर्नाटक के उडुपी जिले में कुंडापुरा तालुक के गंगोल्ली गांव से हैं। बेंगलुरु जिले के सरकारी फॉर्मेसी कॉलेज से बी। फॉर्मा की पढ़ाई करने के बाद बी। पई ने मनिपाल यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की पढ़ाई पूरी की। बी। पई कहते हैं, "पढ़ाई के बाद कर्नाटक में नौकरी के मौके बहुत बेहतर नहीं थी। लिहाजा मैं मुंबई चला गया और अपनी बहन के पास रहने लगा और नौकरी की तलाश में लग गया। कई सारे इंटरव्यू देने के बाद भारत सीरम में नौकरी का मौका मिला।"बी। पई ने भारत सीरम में 17 साल तक नौकरी की। अमेरिकी कंपनी गिलियड साइंसेज के पास ब्लैक फंगी इंफेक्शन के इलाज में काम आने वाली दवा का पेटेंट था। 2008 में कंपनी के पेटेंट की अवधि खत्म हो गई। उस समय भारत के पास बेहतर टेक्नोलॉजी और उपकरणों की सुविधा नहीं थी, इसलिए दवा बनाने के लिए रिसर्च और विकास की बहुत आवश्यकता थी। ऐसे में भारत सीरम को अपनी दवा विकसित करने में 2 साल का लंबा समय लगा। लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन बी दवा के दोबारा बनाने की कोई एसओपी नहीं थी, कंपनी ने इस दवा को बनाने का केवल बेसिक फॉर्मूला शेयर किया था और वे केवल इतना बता सकते थे कि दवा सही बनी है या नहीं।बी। पई ने कहा, "ऐसे में हमें पूरा रिसर्च करना पड़ा और तब जाकर हम क्लिनिकल ट्रायल फेज के स्तर पर पहुंचे। ट्रायल के पहले हमें एफडीए और यूरोपियन मेडिकल एजेंसी से अनुमति भी लेनी पड़ी और फिर 2010-11 में दवा को फाइनली रिलीज किया गया।'लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन बी दवा और उसके प्रभाव को समझाते हुए बी। पई कहते हैं, "म्यूकोरमाइकोसिस मुख्य तौर पर फेफड़े, लीवर और स्पलीन को टारगेट करता है। एम्फोटेरिसिन बी, बीमारी के इलाज में प्रयुक्त होने वाले इंजेक्शन का मुख्य स्त्रोत है, जोकि बाजार में आसानी से उपलब्ध है।" उन्होंने कहा कि इंजेक्शन की 4 अलग-अलग तरह की वैरायटी विकसित की गई हैं। पहला इंजेक्शन एक परंपरागत उत्पाद है। दूसरा लिपोसोमल एम्फोटेरिसिन इंजेक्शन, जोकि सामान्य इंजेक्शन के मुकाबले 75 फीसदी ज्यादा प्रभावी है। तीसरा लिपिड कॉम्प्लेक्स इंजेक्शन है, जोकि दूसरे इंजेक्शन के मुकाबले 20 गुणा ज्यादा प्रभावी है। आखिरी इंजेक्शन एम्फोटेरिसिन इमल्शन है, जोकि सामान्य इंजेक्शन के मुकाबले 150 गुणा ज्यादा प्रभावी है।बता दें कि लिपिड कॉम्प्लेक्स और एम्फोटेरिसिन के लिए बी। पई ने अपने नाम से पेटेंट ले रखा है। इसके अलावा उनके नाम पर 16 अन्य पेटेंट भी हैं, जिसमें वो दवा भी शामिल हैं, जो सर्जरी के दौरान एनेस्थीसिया देने के दौरान प्रोटोकॉल दवा के रूप में इस्तेमाल की जाती है। रिटायरमेंट के बाद बी। पई अपने परिवार के साथ मुंबई में जीवन बिता रहे हैं।