NavBharat Times : Aug 02, 2020, 04:38 PM
Delhi: दक्षिण चीन सागर (South China Sea) में चीन के दावा ठोंकने और उसकी आक्रामक गतिविधियों के चलते दुनिया के कई देश उसे खतरा मान रहे हैं। भारत में ऑस्ट्रेलिया के राजदूत बैरी ओ फैरल ने चीन के राजदूत सुन वीडॉन्ग को याद दिलाया है कि पर्मानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन के 2016 साउथ चाइना सी अवॉर्ड को पेइचिंग ने ठुकरा दिया था। फिलिपींस और चीन के बीच इस केस में फिलिपींस के पक्ष में फैसला आया था और ट्राइब्यूनल ने कहा था कि चीन के पास साउथ चाइना सी में कोई ऐतिहासिक अधिकार नहीं है। चीन '9 डैश लाइन' का हवाला देकर यहां अपना दावा ठोक रहा है। आइए जानते हैं कि यह अवॉर्ड है क्या जिसका पालन करने की सलाह फैरल चीन को दे रहे हैं।
फिलिपींस ने की थी चीन की शिकायत22 जनवरी 2013 को रिपब्लिक ऑफ फिलिपींस ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि (United Nations Convention on the Law of the Sea, the Convention) के Annex VII के तहत विवाचक कार्यवाही (Arbitral Proceedings) शुरू कीं। इसका संबंध साउथ चाइना सी में ऐतिहासिक अधिकारों और समुद्री हकदारी, समुद्र से जुड़ी कुछ खास बातों के स्टेटस और चीन की हरकतों की वैधता जांचने से था। इस विवाद पर फैसला करने के लिए ट्राइब्यूनल को 21 जून, 2013 को बनाया गया। इसकी अध्यक्षता घाना के जज थॉमस मेंसा ने की जबकि फ्रांस के जज जीन-पियरी कॉट, पोलैंड के जज स्टैनिस्लॉ पॉलॉक, नीदरलैंड्स के प्रफेसर अल्फ्रेड सून्स और जर्मनी के जज रूडीगर वॉल्फ्रम इसमें शामिल थे। पर्मानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन ने इसमें रजिस्ट्री की भूमिका भी निभाई।
चीन ने कोर्ट पर ही किया सवालफिलिपींस ने आरोप लगाया था कि चीन की हरकतों से कन्वेन्शन का उल्लंघन हो रहा है। चीन ने इस कार्यवाही को नहीं मानने और इसमें शामिल नहीं होने का फैसला किया। इसके चलते Annex VII के तहत दिए गए प्रावधान के मुताबिक, 'किसी पार्टी की गैरमौजूदगी या उसके अपना बचाव नहीं कर पाने की स्थिति में भी कार्यवाही रोकी नहीं जाएगी।' चीन ने यह भी दावा किया था कि कोर्ट के पास इस मुद्दे पर सुनवाई का अधिकार नहीं है लेकिन कन्वेन्शन के मुताबिक ही अधिकारक्षेत्र को लेकर भी अलग से सुनवाई हुई और पाया गया कि कोर्ट इस पर सुनवाई कर सकता है।
'कन्वेन्शन में खारिज हुए चीन के अधिकार'अपने फैसले में कोर्ट ने यह बात साफ कही है कि कार्यवाही के दौरान ट्राइब्यूनल ने ऐतिहासिक अधिकारों और हकदारी को लेकर जांच की। इसमें पाया गया कि कन्वेन्शन में ही समुद्री इलाकों पर अधिकार तय किए गए थे और किसी भी संसाधन पर पहले से चले आ रहे अधिकारों की रक्षा करने की बात पर विचार किया गया था लेकिन उन्हें कन्वेन्शन में शामिल नहीं किया गया था। इसलिए चीन का दक्षिण चीन सागर के संसाधनों पर जो अधिकार था, वह जहां तक कन्वेन्शन में दिए गए एक्सक्लूसिव इकनॉमिक जोन से मुताबिक नहीं था और वहां उन्हें खत्म कर दिया गया था।
'कभी नहीं था चीन का एकाधिकार'ट्राइब्यूनल ने यह भी कहा था कि पहले दूसरे स्टेट्स के साथ-साथ चीनी मछुआरों और नैविगेशन के लिए दक्षिण चीन सागर के टापुओं का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन इस बात का सबूत नहीं है कि चीन का यहां के संसाधनों पर एकाधिकार था। ट्राइब्यूनल ने अपने फैसले में कहा कि चीन के पास 9 डैश लाइन के अंदर के संसाधनों पर कानूनी अधिकार नहीं है। इसके अलावा कोर्ट ने यह भी पाया कि चीन जिन फीचर्स का हवाला अपने एक्सक्लूसिव इकनॉमिक जोन के लिए दे रहा है, उसके मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं। कोर्ट ने कहा कि कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो फिलिपींस के EEZ में आते हैं क्योंकि वहां चीन का अधिकार नहीं है।
'चीन की हरकतों से खतरा'सबसे बड़ा फैसला चीन की गतिविधियों को लेकर था। ट्राइब्यूनल ने अपने फैसले में कहा कि चीन ने फिलिपींस के EEZ में उसके संप्रभुत्व अधिकारों का उल्लंन किया है, फिलीपन के फिशिंग और पेट्रोल ऑपरेशन में दखल दिया है, कृत्रिम टापू बनाए हैं और चीनी मछुआरों को यहां मछली पकड़ने से नहीं रोका है। यहां तक कि चीन के जहाजों ने फिलिपींस के जहाजों को रोकर टक्कर का खतरा भी पैदा कर दिया है।
अब फिलिपींस पीछ खींच रहा कदमहालांकि, हाल ही में फिलिपींस के राष्ट्रपति रॉड्रीगो दुतर्ते ने कहा है कि फिलिपींस साउथ चाइना सी में चीन से टक्कर नही लेगा। उन्होंने जंग में जाने से बेहतर कूटनीति है और फिलिपींस जंग में जाने की कीमत नहीं चुका सकता। उन्होंने अपना दावा तो नहीं छोड़ा है लेकिन साफ कहा है कि चीन के पास हथियार हैं, तो हक भी उसका है। खास बात यह है कि रॉड्रीगो ने अमेरिका को अपने यहां सैन्य बेस लगाने की इजाजत देने से फिलहाल पैर पीछे खींच लिए हैं क्योंकि उनका मानना है कि जंग की स्थिति में नुकसान फिलीपींस का होगा।
फिलिपींस ने की थी चीन की शिकायत22 जनवरी 2013 को रिपब्लिक ऑफ फिलिपींस ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि (United Nations Convention on the Law of the Sea, the Convention) के Annex VII के तहत विवाचक कार्यवाही (Arbitral Proceedings) शुरू कीं। इसका संबंध साउथ चाइना सी में ऐतिहासिक अधिकारों और समुद्री हकदारी, समुद्र से जुड़ी कुछ खास बातों के स्टेटस और चीन की हरकतों की वैधता जांचने से था। इस विवाद पर फैसला करने के लिए ट्राइब्यूनल को 21 जून, 2013 को बनाया गया। इसकी अध्यक्षता घाना के जज थॉमस मेंसा ने की जबकि फ्रांस के जज जीन-पियरी कॉट, पोलैंड के जज स्टैनिस्लॉ पॉलॉक, नीदरलैंड्स के प्रफेसर अल्फ्रेड सून्स और जर्मनी के जज रूडीगर वॉल्फ्रम इसमें शामिल थे। पर्मानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन ने इसमें रजिस्ट्री की भूमिका भी निभाई।
चीन ने कोर्ट पर ही किया सवालफिलिपींस ने आरोप लगाया था कि चीन की हरकतों से कन्वेन्शन का उल्लंघन हो रहा है। चीन ने इस कार्यवाही को नहीं मानने और इसमें शामिल नहीं होने का फैसला किया। इसके चलते Annex VII के तहत दिए गए प्रावधान के मुताबिक, 'किसी पार्टी की गैरमौजूदगी या उसके अपना बचाव नहीं कर पाने की स्थिति में भी कार्यवाही रोकी नहीं जाएगी।' चीन ने यह भी दावा किया था कि कोर्ट के पास इस मुद्दे पर सुनवाई का अधिकार नहीं है लेकिन कन्वेन्शन के मुताबिक ही अधिकारक्षेत्र को लेकर भी अलग से सुनवाई हुई और पाया गया कि कोर्ट इस पर सुनवाई कर सकता है।
'कन्वेन्शन में खारिज हुए चीन के अधिकार'अपने फैसले में कोर्ट ने यह बात साफ कही है कि कार्यवाही के दौरान ट्राइब्यूनल ने ऐतिहासिक अधिकारों और हकदारी को लेकर जांच की। इसमें पाया गया कि कन्वेन्शन में ही समुद्री इलाकों पर अधिकार तय किए गए थे और किसी भी संसाधन पर पहले से चले आ रहे अधिकारों की रक्षा करने की बात पर विचार किया गया था लेकिन उन्हें कन्वेन्शन में शामिल नहीं किया गया था। इसलिए चीन का दक्षिण चीन सागर के संसाधनों पर जो अधिकार था, वह जहां तक कन्वेन्शन में दिए गए एक्सक्लूसिव इकनॉमिक जोन से मुताबिक नहीं था और वहां उन्हें खत्म कर दिया गया था।
'कभी नहीं था चीन का एकाधिकार'ट्राइब्यूनल ने यह भी कहा था कि पहले दूसरे स्टेट्स के साथ-साथ चीनी मछुआरों और नैविगेशन के लिए दक्षिण चीन सागर के टापुओं का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन इस बात का सबूत नहीं है कि चीन का यहां के संसाधनों पर एकाधिकार था। ट्राइब्यूनल ने अपने फैसले में कहा कि चीन के पास 9 डैश लाइन के अंदर के संसाधनों पर कानूनी अधिकार नहीं है। इसके अलावा कोर्ट ने यह भी पाया कि चीन जिन फीचर्स का हवाला अपने एक्सक्लूसिव इकनॉमिक जोन के लिए दे रहा है, उसके मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं। कोर्ट ने कहा कि कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो फिलिपींस के EEZ में आते हैं क्योंकि वहां चीन का अधिकार नहीं है।
'चीन की हरकतों से खतरा'सबसे बड़ा फैसला चीन की गतिविधियों को लेकर था। ट्राइब्यूनल ने अपने फैसले में कहा कि चीन ने फिलिपींस के EEZ में उसके संप्रभुत्व अधिकारों का उल्लंन किया है, फिलीपन के फिशिंग और पेट्रोल ऑपरेशन में दखल दिया है, कृत्रिम टापू बनाए हैं और चीनी मछुआरों को यहां मछली पकड़ने से नहीं रोका है। यहां तक कि चीन के जहाजों ने फिलिपींस के जहाजों को रोकर टक्कर का खतरा भी पैदा कर दिया है।
अब फिलिपींस पीछ खींच रहा कदमहालांकि, हाल ही में फिलिपींस के राष्ट्रपति रॉड्रीगो दुतर्ते ने कहा है कि फिलिपींस साउथ चाइना सी में चीन से टक्कर नही लेगा। उन्होंने जंग में जाने से बेहतर कूटनीति है और फिलिपींस जंग में जाने की कीमत नहीं चुका सकता। उन्होंने अपना दावा तो नहीं छोड़ा है लेकिन साफ कहा है कि चीन के पास हथियार हैं, तो हक भी उसका है। खास बात यह है कि रॉड्रीगो ने अमेरिका को अपने यहां सैन्य बेस लगाने की इजाजत देने से फिलहाल पैर पीछे खींच लिए हैं क्योंकि उनका मानना है कि जंग की स्थिति में नुकसान फिलीपींस का होगा।