इरफान खान / सब कुछ जाने देने का नाम ही जिंदगी लेकिन तुम अलविदा कहने का मौका तो देते ​इरफान!

आखिर में सब कुछ जाने देने का नाम ही जिंदगी है लेकिन सबसे ज्यादो तकलीफ तब होती है, जब आपको अलविदा कहने का मौका नहीं मिलता। लाइफ आफ पाई के आखिरी डायलॉग इरफान खान जाते—जाते खुद पर लागू कर गए। क्या गजब के कलाकार थे, उनके तमाम किरदार चेहरे के सामने हैं। हताशा, निराशा, भोलेपन के साथ दर्द, तिरस्कार और बग़ावत का मिश्रण जिस तरह से इरफान ने पान सिंह तोमर का रोल किया, उससे देश ने जाना उनसे बेहतर इस किरदार के साथ कोई ...

Vikrant Shekhawat : Apr 29, 2020, 08:52 PM
आखिर में सब कुछ जाने देने का नाम ही जिंदगी है लेकिन सबसे ज्यादो तकलीफ तब होती है, जब आपको अलविदा कहने का मौका नहीं मिलता। लाइफ आफ पाई के आखिरी डायलॉग इरफान खान जाते—जाते खुद पर लागू कर गए। क्या गजब के कलाकार थे, उनके तमाम किरदार चेहरे के सामने हैं। हताशा, निराशा, भोलेपन के साथ दर्द, तिरस्कार और बग़ावत का मिश्रण जिस तरह से इरफान ने पान सिंह तोमर का रोल किया, उससे देश ने जाना उनसे बेहतर इस किरदार के साथ कोई न्याय नहीं कर सकता था। कभी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी रहा बंदूक़ उठा चुका पान सिंह बोलता है कि बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में... तो थिएटर में पड़ने वाली ताली देश के मौजूदा हालातों से रूबरू कराने के लिए इरफान का अहसानमंद होती दिखती है। 


सलाम बाम्बे का वह सीन इरफान के जीवन का पहला किरदार था। जिसमें सड़क किनारे बैठकर लोगों की चिट्टियाँ लिखने वाले एक लड़के का छोटा सा रोल शायद ही किसी को याद होगा। "बस-बस 10 लाइन हो गया, आगे लिखने का 50 पैसा लगेगा। माँ का नाम-पता बोल। पहली दफ़ा लोगों ने इरफ़ान ख़ान को फ़िल्मी पर्दे पर देखा और भूल गए. लेकिन ये शायद ही किसी को मालूम था कि ये अभिनेता आगे जाकर भारत ही नहीं दुनिया भर में नाम कमाएगा।

1966 में जयपुर में जन्मे इरफ़ान ख़ान का बचपन एक छोटे से क़स्बे टोंक में गुज़रा. शहर छोटा था पर सपने बड़े थे। नसीरुद्दीन शाह के फैन थे। एक इंटरव्यू में बताया कि किसी ने कहा मिथुन चक्रवर्ती जैसे दिखते हो तो बस हैयर स्टाइल करवा ली। 

लेकिन आगे चलकर इरफ़ान ख़ुद एक ट्रेंडसेटर बने। एक ओर जहाँ उन्होंने ख़ुद को हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिभावान एक्टर्स की लिस्ट में स्थापित किया वहीं हॉलीवुड में लाइफ़ ऑफ़ पाई, द नेमसेक, द स्लमडॉग मिलियनेयर, द माइटी हार्ट, द अमेज़िंग स्पाइडरमैन जैसी फ़िल्में की। मतलब ऐंग ली और मीरा नायर की फ़िल्मों से लेकर अनीस बज़्मी और शूजीत सरकार तक। इरफ़ान अपने आप में प्रतिभा की खान थे - ख़ासकर शाहरुख़, आमिर और सलमान- तीनों ख़ानों से घिरे बॉलीवुड में भी। चाहे आँखों से अभिनय करने की उनकी अदा हो, संवाद बोलने की अपनी सहजता, रोमाटिंक रोल से लेकर बीहड़ का डाकू बनने की उनकी क्षमता- ऐसा ख़ूबसूरत तालमेल कम ही देखने को मिलता है। मसलन पान सिंह तोमर में डकैत का रोल और उसमें जिस तरह वो मासूमियत, भोलेपन, दर्द, तिरस्कार और बग़ावत का पुट एक साथ लेकर लाते हैं। जब सिस्टम से हताश और बंदूक़ उठा चुका पान सिंह बोलता है कि बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में... तो थिएटर में पड़ने वाली तालियों ने इस बात पर मोहर लगाई कि देश में लुटेरे नेताओं की भरमार है। हैदर में कश्मीर में रूहदार का वो रोल जो कहता है- झेलम भी मैं, चिनार भी मैं, शिया भी मैं, सुन्नी भी मैं और पंडित भी। रूहदार का किरदार जो आपको यक़ीन दिलाता है कि वो आपकी ही ज़मीर की आवाज़ है।


जब फ़िल्म जज़्बा में वो ऐश्वर्या से कहते हैं कि 'मोहब्बत है इसीलिए तो जाने दिया, ज़िद्द होती तो बाहों में होती' तो आपको यक़ीन होता है कि इससे दिलकश आशिक़ी हो ही नहीं सकती। कहने का मतलब कि इरफ़ान ख़ान की ख़ासियत यही थी कि जिस रोल में वो पर्दे पर दिखते रहे, सिनेमा में बैठी जनता को लगता रहा कि इससे बेहतर इस किरदार को कोई कर ही नहीं सकता था। ऐसी इंडस्ट्री में जहाँ एडजस्टमेंट एक नियम सा है, इरफ़ान उन सारे नियमों को तोड़ते रहे। निगेटिव रोल हो या कॉमिक रोल। उनका कोई सानी नहीं रहा। 


इत्तेफ़ाक़ है कि जब नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ ड्रामा में इरफ़ान पढ़ाई कर रहे थे तभी मीरा नायर ने उन्हें सलाम बॉम्बे में एक बड़े रोल के लिए चुना, वो बॉम्बे आकर वर्कशॉप में शामिल हुए और दो दिन पहले उनसे कहा गया कि उन्हें वो रोल नहीं मिलेगा। वो रात भर रोते रहे. बदले में उन्हें छोटा से रोल दे दिया गया। लेकिन इसका क़र्ज़ मीरा नायर ने 18 साल बाद इरफ़ान ख़ान को द नेमसेक में अशोक गांगुली का रोल देकर चुकाया। इस रोल को देखकर शर्मिला टैगोर ने इरफ़ान ख़ान को मैसेज किया था- अपने माँ-बाप को शुक्रिया कहना आपको जन्म देने के लिए इत्तेफ़ाक़ है कि तीन दिन पहले ही उन्हें जन्म देने वाली माँ सईदा बेगम की मौत हो गई और अब इरफ़ान भी अलविदा कह गए। 

ऐसी इंडस्ट्री में जहाँ एडजस्टमेंट एक नियम सा है, इरफ़ान उन सारे नियमों को तोड़ते रहे।

इरफान! कॉमर्शियल इण्डस्ट्री के अन्य कलाकारों से तुम्हारी तुलना बेमानी है। उन्हें लोग उनके असली नाम से ही जानते रहे हैं। वे नहीं रहेंगे तो नए आएंगे और लोग भूल जाएंगे। लेकिन तुम अपने किरदारों में सदा जिन्दा रहोगे। अभी हाल ही में तुम्हारी फिल्म अंग्रेजी मीडियम का 'चम्पक बंसल' जेहन में याद आ रहा है। ठेठ उदयपुर का अंदाज छा गया भाई। बिल्लू में 'बिल्लू बारबर' का किरदार। करीब करीब सिंगल का 'योगी', हॉलीवुड की लाइफ आफ पाई में किरदार छोटा था लेकिन ग्लोबल। द वारियर तो जालोर  के कोट कास्तां में फिल्माई गई। यह सदा सुनते ही रहे हैं। जालोर के लोग आज भी उसे याद करते हैं। वह खण्डहर किला आज भी भग्नावशेष के रूप में खड़ा शायद तुम्हें याद करता होगा, जिसने उसे किंचित ही सही वैश्विक पहचान तो दी।

पीकू फिल्म का 'राणा चौधरी', 'पानसिंह तोमर', हासिल फिल्म का 'रणविजय', भारत की मैकबैथ कही गई मकबूल में 'मकबूल', कश्मीर पृष्ठभूमि पर बनी हैदर का तुम्हारा सर्द चेहरे वाला किरदार 'रूहदार', हिन्दी मीडियम का 'राज बत्रा', अंग्रेजी मीडियम का उदयपुर वाला 'चम्पक' जैसे किरदार में हमेशा जीवित रहोगे। अपनी मां के इन्तकाल के तीन दिन बाद यूं दुनिया छोड़ जाना। तुम्हारे दर्शक तुम्हें हमेशा अपने हीरो के रूप में याद करेंगे।