भारत यात्रा / काला पानी की सजा वाली सेलुलर जेल जिसकी यादें ही रूह कंपा देती हैं, वहां क्रान्तिकारियों ने ​झेली यातनाएं

देश की आजादी में कई शहीदों का योगदान रहा। हजारों क्रांतिवीरों ने जेल की यातनाएं भोगी। इसमें काला पानी की सजा का नाम आपने सुना होगा। हम आपको बता रहे हैं कि काले पानी की सजा क्या होती है। यह कहां दी जाती थी। यह एक जेल है। जो भारत के अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में बनी हुई है।

Vikrant Shekhawat : Aug 13, 2020, 07:50 AM
देश की आजादी में कई शहीदों का योगदान रहा। हजारों क्रांतिवीरों ने जेल की यातनाएं भोगी। इसमें काला पानी की सजा का नाम आपने सुना होगा। हम आपको बता रहे हैं कि काले पानी की सजा क्या होती है। यह कहां दी जाती थी। यह एक जेल है। जो भारत के अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में बनी हुई है। यह अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को कैद रखने के लिए बनाई गई थी, जो कि मुख्य भारत भूमि से हजारों किलोमीटर दूर स्थित थी, व सागर से भी हजार किलोमीटर दुर्गम मार्ग पड़ता था। यह काला पानी के नाम से कुख्यात थी। हम आपको आज इस जेल का इतिहास बताने जा रहे हैं।


क्या है काला पानी

हम जब अपने देश के स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हैं, तो हमें उस कालापानी की याद भी आ जाती है, जो अंग्रेजों की बर्बरता को बताने के लिए काफी है। कालापानी एक ऐसी सजा होती थी, जिसका ख्याल आने भर से उस वक्त के लोगों  के रोंगटे खड़े हो जाते थे। हालांकि अब देश में ‘सजा ए कालापानी’ का कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, फिर भी लोगों को इसके बारे में जानने की दिलचस्पी लगातार बनी हुई है। सेलुलर जेल में कालापानी शब्द अंडमान के बंदी उपनिवेश के लिए देश निकला देने का पर्याय है। कालापानी का भाव सांस्कृतिक शब्द काल  से बना है जिसका अर्थ होता है समय अथवा मृत्यु अर्थात कालापानी शब्द का अर्थ मृत्यु जल या मृत्यु के स्थान से है जहाँ से कोई वापस नहीं आता है। देश निकालों के लिए कालापानी का अर्थ बाकी बचे हुए जीवन के लिए कठोर और अमानवीय यातनाएँ सहना था। कालापानी यानि स्वतंत्रता सेनानियों उन अनकही यातनाओं और तकलीफ़ों का सामना करने के लिए जीवित नरक में भेजना जो मौत की सजा से भी बदतर था। अपनों से दूर भेजने का अर्थ होता है वो यात्रा जो मृत्यु की घड़ी तक ले जाता हो। बंदी को हमेशा के लिए उसके समाज से दूर ले जाया जाता है। उसे वहाँ भेजा दिया जाता है जहाँ लोग रहते हैं पर अदृय्ष्य लोक है जहाँ अति विस्मयकारी तत्त्व हैं। जहाँ के बारे में वो कुछ नहीं जानता है।


इसलिए कहते हैं सेलुलर जेल

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेलुलर जेल एक ऐसी जेल है जहां पर अंग्रेजों ने आजादी की लड़ाई लड़ रहे भारतीयों को बहुत ही अमानवीय परिस्थितियों में निर्वासित और कैद करके रखा था। वर्तमान में यह एक राष्ट्रीय स्मारक है, इसे सेलुलर इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका निर्माण एकान्त कारावास के उद्देश्य से केवल व्यक्तिगत सेलों का निर्माण करने के लिए किया गया था। मूल रूप से, इमारत में सात विंग थे, जिसके केंद्र में एक बड़ी घंटी के साथ एक टॉवर बना हुआ था, जो गार्ड द्वारा संचालित होता था। प्रत्येक विंग में तीन मंजिलें थीं और प्रत्येक एकान्त सेल की लंबाई-चौड़ाई लगभग 15 फीट और 9 फीट थी, जिसमें 9 फीट की ऊंचाई पर एकमात्र खिड़की लगी हुई थी। इन विंगों को एक साइकिल के स्पोक्स जैसा बनाए गया था और एक विंग के सामने दूसरे विंग के पिछले हिस्से को रखा गया था इसलिए एक कैदी को दूसरे कैदी के साथ संवाद करने का कोई भी माध्यम उपलब्ध नहीं था।


अंग्रेजों का प्रमुख हथियार

अंग्रेजों के दमन चक्र के खिलाफ जब भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना विद्रोह तेज किया तो ब्रिटिश सरकार ने भी यातना देने के नए-नए तरीके इजाद किए। इसी में से एक था ‘कालापानी’। इसके तहत उन्होंने सेल्युलर नाम से जेल बनाई, जिसमेंं  स्वतंत्रता सेनानियों को कैदी बनाकर रखा जाता था. इन जेलों मेंं प्रकाश का कोई इंतजाम नहीं किया जाता था. साथ ही समय-समय पर यातनाएं दी जाती थी। जानकारों की माने तो इन जेलों में, भारतीय कैदियों के साथ बहुत बुरा बर्ताव होता था। उन्हें गंदे बर्तनों में खाना दिया जाता था, पीने का पानी भी सीमित मात्रा में मिलता था। यहां तक कि जबरदस्ती नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते थे, और जो ज्यादा विरोध करता था उसे तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया जाता था।


नामुमकिन होता था कैद से भागना

वैसे तो भारतीय कैदी आम जेलों से भाग निकलते थे, बावजूद इसके ब्रिटिश सरकार ने कालापानी के लिए बनाई गई जेल की चार दीवारी बहुत छोटी बनवाई थी, क्योंकि इस जेल का निर्माण जिस जगह हुआ था, वह स्थान चारों ओर से समुद्र के गहरे पानी में घिरा हुआ था. ऐसे मेंं किसी भी कैदी का भाग पाना नामुमकिन था. फिर भी भारतीय तो भारतीय थे… 238 कैदियों ने एक साथ अग्रजों को चकमा देकर वहां से भाग निकलने की कोशिश कर डाली। हालांकि अपनी इस कोशिश मेंं वह कामयाब नहीं हुए और पकड़े गए। फिर क्या होना था, उन्हें अंग्रेजों के कहर का सामना करना पड़ा था। कहा तो यह भी जाता है कि पकड़े जाने के बाद अंग्रेजों की यातना के डर से इनमेंं से एक कैदी ने आत्महत्या कर ली थी, जिससे नाराज होकर जेल अधीक्षक वॉकर ने 87 लोगों को फांसी पर लटकाने का आदेश दे दिया था। बावजूद इसके हमारे स्वतंत्रता सेनानी ‘भारत माता की जय’ बोलने से कभी पीछे नहीं हटे।


विदेशों से भी लाए जाते थे कैदी

जानकारी के अनुसार कालापानी की इस जेल का प्रयोग अंग्रेज सिर्फ भारतीय कैदियों के लिए नहीं करते थे। यहां दूसरी जगहों से भी सेनानियों को कैद करके लाया जाता था। ब्रिटिश अधिकारियों के लिए यह जगह पंसदीदा थी, क्योंकि यह द्वीप एकांत और दूर था। इस कारण आसानी से कोई आ नहीं सकता था और न ही जा सकता था। अंग्रेज यहां कैदियों को लाकर उनसे विभिन तरह के काम भी करवाते थे। बताते चलें कि 200 विद्रोहियों को यहां सबसे पहले अंग्रेज अधिकारी डेविड बेरी के देख रेख में सबसे पहले लाया गया था।

14 साल से अधिक समय लगा बनने में

1857 का वर्ष ब्रिटिश वर्चस्व के लिए एक खतरा बन गया था और 19वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजी साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था। 20वीं सदी के राजनीतिक माहौल ने स्वतंत्रता संग्राम के कई चरण देखे हैं, जैसे कि गांधीजी की अहिंसा वाली नीति और सविनय अवज्ञा आंदोलन और कई अन्य अभियान। जेल का निर्माण कार्य 1896 में शुरू हुआ था और 1910 में संपन्न हुआ था। इसकी मूल इमारत एक गहरे भूरे लाल रंग की ईंटों से बनी हुई थी। इमारत में सात विंग थे, जिसके केंद्र में एक टॉवर की स्थापना चौराहे के रूप में की गई थी और जिसका इस्तेमाल कैदियों पर नजर रखने के लिए गार्डों के द्वारा किया जाता था।


पहले थी वाइपर द्वीप की जेल

सेलुलर जेल का निर्माण होने से पहले, वह वाइपर द्वीप की जेल थी जिसे ब्रिटिश शासन द्वारा देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वालों को प्रताड़ित करने के लिए, अत्याचार और यातना का सबसे बुरा रूप देने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। काल कोठरी वाला सेल, लॉक-अप, स्टॉक और कोड़ों की मार, वाइपर जेल की विशेषता रही है। महिलाओं को भी जेल में रखा गया था। जेल की परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थीं कि इस जगह को कुख्यात नाम दिया गया, "वाइपर चेन गैंग जेल।" जिन लोगों ने ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी थी, उन्हें एक साथ जंजीर में जकड़ दिया जाता था और रात में उनके पैरों के इर्द-गिर्द बेड़ियों के माध्यम से चलने वाली श्रृंखला तक सीमित कर दिया जाता था। इस जेल में चेन गैंग के सदस्यों को कठोर श्रम के लिए रखा गया था।


काल कोठरियों की सजा

सेलुलर जेल की वास्तुकला को 'पेंसिल्वेनिया प्रणाली या एकांत प्रणाली' के सिद्धांत के आधार पर परिकल्पित किया गया था, जिसमें अन्य कैदियों से पूरी तरह अलग रखने के लिए प्रत्येक कैदी के लिए अलग-अलग कारावास का होना आवश्यक है। एक ही विंग में या अलग विंगों में कैदियों के बीच किसी भी प्रकार का कोई संचार संभव नहीं था।  सेलुलर जेल की हर ईंट प्रतिरोध, कष्ट और बलिदानों की हृदय विदारक कहानियों की गवाह रही हैं। सेलुलर जेल महान देशभक्तों और स्वतंत्रता सेनानियों के अमानवीय कष्टों को देखने वाला एक मूक दर्शक रहा है जो इन काल कोठरियों में कैद थे। यहां तक कि उन्हें अत्याचार के शिकार के रूप में अपने बहुमूल्य जीवन का भी बलिदान करना पड़ा।

अमानवीय यातनाएं देते थे

प्रायः सजा अमानवीय होती थी, जो कि पिसाई करने वाली मिल पर अतिरिक्त घंटों का काम करने से लेकर एक सप्ताह तक हथकड़ी पहनकर खड़े रहने, बागवानी, गरी सुखाने, रस्सी बनाने, नारियल की जटा तैयार करने, कालीन बनाने, तौलिया बुनने, छह महीने तक बेड़ियों में जकड़े रहने, एकांत काल कोठरी में कैद रहने, चार दिनों तक भूखा रखने और दस दिनों के लिए सलाखों के पीछे रहने तक फैली हुई थी, एक सजा ऐसी भयावह थी जिसमें पीड़ित को अपने शरीर से पैरों को अलग करने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

इन स्वतंत्रता सेनानियों ने झेली यातनाएं



वीर सावरकर - 1911 में स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर को मार्ले-मिंटो सुधार (भारतीय परिषद अधिनियम 1909) के खिलाफ विद्रोह करने के जुर्म में अंडमान की सेलुलर जेल (जिसे ‘काला पानी’ के नाम से भी जाना जाता है) में 50 साल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें 1924 में रिहा कर दिया गया था। वे अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे और इसलिए उन्हें 'वीर' उपनाम दिया गया था।


बी.के.दत्त – बटुकेश्वर दत्त, जिन्हें बी. के. दत्त के नाम से भी जाना जाता है, एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भगत सिंह के साथ 1929 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में किए गए बम विस्फोट मामले में शामिल थे, 20 जुलाई 1965 को 54 वर्ष की उम्र में एक बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। सिंह और दत्त दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और उन्हें पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल में डाल दिया गया।

फज़ले हक खैराबादी - 1857 के भारतीय विद्रोह की विफलता के बाद, फज़ले हक खैराबादी को माफी के दायरे में रखा गया था लेकिन 30 जनवरी 1859 को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा हिंसा भड़काने के जुर्म में खैराबाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 'जिहाद' के लिए भूमिका अदा करने और हत्या को प्रोत्साहित करने का दोषी पाया गया। उन्होंने अपना वकील खुद ही बनने का निर्णय लिया और अपना बचाव खुद ही किया। उनकी दलीलें और जिस प्रकार से उन्होंने अपने मामले का बचाव किया, वह इतना प्रभावपूर्ण और विश्वसनीय था कि पीठासीन मजिस्ट्रेट उनको निर्दोष घोषित करने का फैसला लिख ​​रहे थे, तब उन्होंने फतवा जारी करने वाली बात कबूल की और कहा कि वे झूठ नहीं बोल सकते हैं। उन्हें अंडमान द्वीप के कालापानी (सेलुलर जेल) में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और उनकी संपत्ति को अवध अदालत के न्यायिक आयुक्त द्वारा जब्त कर लिया गया।

बरिंद्र कुमार घोष - बरिंद्र कुमार घोष का जन्म 5 जनवरी 1880 को लंदन के निकट क्रॉयडन में हुआ था। 30 अप्रैल 1908 को दो क्रांतिकारियों, खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा किंग्सफोर्ड की हत्या के प्रयास के बाद, पुलिस ने अपनी जांच को तेज कर दिया जिसके कारण 2 मई 1908 को बरिंद्र कुमार घोष और अरविंद घोष की गिरफ्तारी हुई, जिसमें उनके कई साथी भी शामिल थे। इस मुकदमे (जिसे अलीपुर बम कांड के नाम से भी जाना जाता है) की शुरुआत में, बरिंद्र कुमार घोष और उल्लासकर दत्ता को मौत की सजा सुनाई गई। हालांकि, इस सजा को कम करके उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया, देशबंधु चितरंजन दास और बरिंद्र कुमार घोष को अन्य दोषियों के साथ 1909 में अंडमान की सेलुलर जेल में भेज दिया गया था।

सुशील दासगुप्ता - सुशील कुमार दासगुप्ता (1910-1947) का जन्म बरिशाल में हुआ था, जो अब बांग्लादेश में है। वे बंगाल के क्रांतिकारी, युगंतार दल के सदस्य थे, और 1929 के पुटिया मेल डकैती मामले में उन्हें मेदिनीपुर जेल लाया गया। वहां से, वे अपने साथी क्रांतिकारियों, सचिनकर गुप्ता और दिनेश मजूमदार के साथ फरार हो गए। वे सात महीने तक फरार रहे थे। आखिरकार दिनेश मजूमदार को पकड़ लिया गया और उन्हें फांसी दे दी गई, सुशील दासगुप्ता को पहले सेलुलर जेल भेजा गया, और सचिनकर गुप्ता को पहले मंडलीय जेल और फिर सेलुलर जेल में भेज दिया गया।

‘भूख हड़ताल’ के बदले मिली मौत

जब देश में स्वतंत्रता का आंदोलन चरम सीमा पर था. उस समय अंग्रेजों ने बहुत सारे लोगों को कालापानी की सजा सुनाई थी.उनमे अधिकांश कैदी स्वतंत्रता सेनानी थे। सावरकर के भाई बाबूराम सावरकर, डॉ दीवन सिंह,योगेन्द्र शुक्ला, मौलाना अहमदउल्ला, मौलवी अब्दुल रहीम सदिकपुरी, भाई परमानंद, मौलाना फजल-ए – हक खैराबादी, शदन चन्द्र चटर्जी, सोहन सिंह, वमन राव जोशी, नंद गोपाल, महावीर सिंह जैसे आदि को ‘कालापानी’ के दंश को झेलना पड़ा था। अंग्रेज अधिकारियो का अत्याचार बढ़ता जा रहा था। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों पर यातना का सिलसिला बढ़ा दिया था। उनकी क्रूरता इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि अब बर्दाश्त से बाहर था। लेकिन सवाल यह था कि आखिर किया क्या जाए, ऐसे में भगत सिंह के दोस्त कहे जाने वाले महावीर सिंह जेल में भूख हड़ताल पर बैठ गए। जब अंग्रेज अधिकारियों को इसकी सूचना हुई तो उन्होंने महावीर पर जुल्म बढ़ा दिए, उनकी भूख हड़ताल को खत्म करने  के सभी प्रयास किए, लेकिन महावीर नहीं टूटे। अंत में उनके दूध में जहर मिलाकर, उन्हें जबरन पिलाया गया, जिससे उनकी तुरंत मौत हो गई थी। मौत के बाद महावीर के मृत शरीर में पत्थर बांधकर समुद्र में फेक दिया गया था। ताकि किसी को भी इस बारे मेंं कोई खब़र न लगे, लेकिन इसकी ख़बर जल्द ही पूरे जेल मेंं फैल गई, जिसके परिणामस्वरूप जेल के सारे कैदी भूख हड़ताल पर चले गए थे। बाद में महात्मा गांधी के हस्तक्षेप के चलते 1937-1938 में इन कैदियों को वापस भारत भेज दिया गया था।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का बड़ा योगदान



1932 से लेकर 1937 के दौरान विशेष रूप से सामूहिक भूख हड़ताल का सहारा लिया गया। अंतिम हड़ताल जुलाई 1937 में शुरू हुई थी और यह 45 दिनों तक जारी रही थी। सरकार ने अंततः दंडात्मक उपनिवेश को बंद करने का फैसला किया और सेलुलर जेल के सभी राजनीतिक कैदियों को जनवरी 1938 तक भारत की मुख्य भूमि पर अपने-अपने राज्यों में वापस भेज दिया गया। 29 दिसंबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस के आज़ाद हिंद सरकार द्वारा द्वीपों पर राजनीतिक नियंत्रण करने का मसौदा पारित किया गया। बोस ने भारतीय राष्ट्रीय सेना का तिरंगा झंडा फहराने के लिए पोर्ट ब्लेयर का दौरा किया। अंडमान की उनकी एकमात्र यात्रा  के दौरान,  जापानी अधिकारियों द्वारा उन्हें स्थानीय आबादी से सावधानी के साथ छुपा कर रखा गया था। उन्हें अंडमान के लोगों की पीड़ाओं से अवगत कराने का कई बार प्रयास किया गया, और यह तथ्य कि उस समय कई स्थानीय भारतीय राष्ट्रवादी सेल्युलर जेल में यातनाएं झेल रहे थे।

सौंदर्य से भरपूर है अंडमान


अंडमान द्वीप समूह बंगाल की खाड़ी में स्थित एक भारतीय द्वीप समूह है। ये लगभग 300 द्वीपों से बना है और अपने पाम-लाइन, सफेद-रेत वाले समुद्र तटों, मैंग्रोव और उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों के लिए जाना जाता है। प्रवाल भित्तियां, शार्क और रे मछली जैसे समुद्री जीवों का समर्थन करती हैं जो कि लोकप्रिय गोताखोरी और स्नोर्कलिंग साइटों का निर्माण करते हैं। अंडमान द्वीप समूह के स्वदेशी लोग और भी ज्यादा दूरदराज वाले द्वीपों में निवास करते हैं, जिनमें से कई तक आगंतुकों को पहुंच प्राप्त नहीं हैं। दक्षिण अंडमान द्वीप पर स्थित पोर्ट ब्लेयर, अंडमान निकोबार द्वीप समूह की राजधानी है। इसका समुद्र तट वाला सेलुलर जेल, एक ब्रिटिश दंडात्मक कॉलोनी के रूप में अपने अतीत की याद दिलाता है जो कि अब भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक स्मारक बन चुका है। अंत:स्थलीय, समुद्रिका मैरिन संग्रहालय, स्थानीय समुद्री जीवन को प्रदर्शित करता है। एंथ्रोपोलॉजिकल संग्रहालय, द्वीपों की स्वदेशी जनजातियों के ऊपर केंद्रित है। सेलुलर जेल संग्रहालय, दुनिया भर के पर्यटकों के लिए अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के लिए एक प्रमुख और सबसे आकर्षक दर्शनीय स्थल है, जिसमें राष्ट्रीय स्मारक घर, स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें और प्रदर्शनी गैलरी, आर्ट गैलरी और स्वतंत्रता आंदोलन के ऊपर एक पुस्तकालय भी शामिल हैं। यह स्थल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की हमारी यादों को निश्चित रूप से तरोताजा करता है। रॉस द्वीप या एन. सी. बोस द्वीप में बेकरी, पुराने कार्यालय भवनों, चर्चों आदि के रूप में भव्य ब्रिटिश अतीत के खंडहर मौजूद हैं। नील द्वीप या शहीद द्वीप में सफेद किनारों के साथ, प्रवाल भित्तियों को प्रायः स्नोर्कलिंग के लिए जाना जाता है। हैवलॉक द्वीप समूह जिसका नाम स्वराज द्वीप भी है राधानगर समुद्र तट का घर है। हाथी द्वीप पर यात्री स्कूबा डाइविंग, मछली पकड़ने, स्नोर्कलिंग आदि का आनंद ले सकते हैं।