AajTak : Apr 10, 2020, 08:22 AM
Ozone Layer: धरती के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के ऊपर ओजोन लेयर है। एक तरफ कोरोना वायरस की वजह से लगाए गए लॉकडाउन ने दक्षिणी ध्रुव के ओजोन लेयर के छेद को कम किया। वहीं दूसरी तरफ उत्तरी ध्रुव के ओजोन लेयर पर एक बड़ा छेद देखा गया है। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह अब तक के इतिहास का सबसे बड़ा छेद है।उत्तरी ध्रुव यानी नॉर्थ पोल यानी धरती का आर्कटिक वाला क्षेत्र। इस क्षेत्र के ऊपर एक ताकतवर पोलर वर्टेक्स बना हुआ है। नॉर्थ पोल के ऊपर बहुत ऊंचाई पर स्थित स्ट्रेटोस्फेयर पर बन रहे बादलों की वजह से ओजोन लेयर पतली हो रही है। इसके बाद ओजोन लेयर के छेद को कम करने के पीछे मुख्यतः तीन सबसे बड़े कारण हैं ये बादल, क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन्स। अभी इन तीनों की मात्रा स्ट्रेटोस्फेयर में बढ़ गई है। इनकी वजह से स्ट्रेटोस्फेयर में जब सूरज की अल्ट्रवायलेट किरणें टकराती हैं तो उनसे क्लोरीन और ब्रोमीन के एटम निकलते हैं। यही एटम ओजोन लेयर को पतला कर रहे हैं। जिसके उसका छेद बड़ा होता जा रहा है। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसी स्थिति आमतौर पर दक्षिणी ध्रुव यानी साउथ पोल यानी अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन लेयर में देखने को मिलता है। लेकिन इस बार उत्तरी ध्रुव के ऊपर ओजोन लेयर में ऐसा देखने को मिल रहा है। आपको बता दें कि स्ट्रेटोस्फेयर की परत धरती के ऊपर 10 से लेकर 50 किलोमीटर तक होती है। इसी के बीच में रहती है ओजोन लेयर जो धरती पर मौजूद जीवन को सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाती है। बसंत ऋतु में दक्षिणी ध्रुव के ऊपर की ओजोन लेयर लगभग 70 फीसदी गायब हो जाती है। कुछ जगहों पर तो लेयर बचती ही नहीं। लेकिन उत्तरी ध्रुव पर ऐसा नहीं होता। यहां लेयर पतली होती आई है लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि इतना बड़ा छेद देखने को मिला है। ओजोन लेयर का अध्ययन करने वाले कॉपनिकस एटमॉस्फेयर मॉनिटरिंग सर्विस के निदेशक विनसेंट हेनरी पिउच ने कहा कि यह कम तापमान और सूर्य की किरणों के टकराव के बाद हुई रासायनिक प्रक्रिया का नतीजा है। विनसेंट हेनरी ने कहा कि हमें कोशिश करनी चाहिए कि प्रदूषण कम करें। लेकिन इस बार ओजोन में जो छेद हुआ है वो पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के लिए अध्ययन का विषय है। हमें स्ट्रैटोस्फेयर में बढ़ रहे क्लोरीन और ब्रोमीन के स्तर को कम करना होगा। विनसेंट ने उम्मीद जताई है कि ये ओजोन लेयर में बना यह बड़ा छेद जल्द ही भरने लगेगा। ये मौसम के बदलाव के साथ ही संभव होगा। इस समय हमें 1987 में हुए मॉन्ट्रियल समझौते को अमल में लाना चाहिए। सबसे पहले चीन के उद्योगों से होने वाले प्रदूषण को रोकना होगा।