देश / यूरोप की जहरीली हवाओं से हमारे हिमालय पर बरस रही है ये आफत- रिसर्च

हिमालय में कम होती बर्फ की चादरों के लिए अभी तक स्थानीय लोगों को जिम्मेदार माना जाता था। असल में हिमालय की कम बर्फबारी, बर्फ का तेजी पिघलना और विंटर लाइन का खिसकना ये सब यूरोपीय देशों की वजह हो रहा है। यह खुलासा किया है देहरादून स्थित एक प्रमुख संस्थान ने जो हिमालय को बचाने के लिए काम करता है।

AajTak : Jul 27, 2020, 09:55 AM
हिमालय में कम होती बर्फ की चादरों के लिए अभी तक स्थानीय लोगों को जिम्मेदार माना जाता था। असल में हिमालय की कम बर्फबारी, बर्फ का तेजी पिघलना और विंटर लाइन का खिसकना ये सब यूरोपीय देशों की वजह हो रहा है। यह खुलासा किया है देहरादून स्थित एक प्रमुख संस्थान ने जो हिमालय को बचाने के लिए काम करता है।

यूरोपीय देशों का वायु प्रदूषण और जहरीली गैसें अब हमारे हिमालय का मुंह काला कर रही हैं। इससे हिमालय की सेहत बिगड़ रही है। एक रिसर्च में पता चला है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते हिमालय में सितंबर से दिसंबर तक होने वाली बर्फबारी अब खिसक कर जनवरी से मार्च हो गई है। 

इस वजह से जनवरी से मार्च तक पड़ी बर्फ अप्रैल और मई में गर्मी आते ही जल्दी पिघल जाती हैं। ये शोध किया है देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने। 

इस रिसर्च के अनुसार उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में विंटर लाइन यानी बर्फ की रेखा करीब 50 मीटर पीछे खिसक गई है। इसकी वजह से कई हिमालयी वनस्पतियां और सेब की प्रजातियां खत्म होने की कगार पर पहुंच गई हैं। 

अब देश के वैज्ञानिक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूरोपीय देशों की तरफ से आने वाले प्रदूषण के खिलाफ आवाज उठाएंगे। वाडिया इंस्टीट्यूट के डॉ। डीपी डोभाल कहते हैं कि पहले हिमालय पर सितंबर से ही बर्फबारी शुरू हो जाती थी। इस समय गिरी बर्फ मार्च तक ठोस हो जाती थी।

बर्फ की परत भी मोटी होती थी। क्योंकि नवंबर से फरवरी के बीच भी बर्फबारी होती रहती थी। लेकिन अब सितंबर से दिसंबर तक होने वाली बर्फबारी खिसक कर जनवरी से मार्च हो गई है। इसलिए जो बर्फ गिरती है उसे ठोस होने का समय नहीं मिलता। क्योंकि एक महीने बाद ही गर्मी का मौसम आ जाता है।

विंटर लाइन यानी बर्फ की रेखा या स्नोलाइन के पीछ खिसकने का कारण भी यही है। इस समय हिमालय पर दो तरह का प्रदूषण हो रहा है। पहला बायोमास प्रदूषण (कार्बन डाईऑक्साइड) और दूसरा तत्व आधारित प्रदूषण। ये दोनों ही ब्लैक कार्बन बनाते हैं। जिसकी वजह से 15 हजार ग्लेशियर पिघल रहे हैं। 

अभी तक हिमालय की बर्फ पिघलने के पीछे अकेले स्थानीय प्रदूषण को जिम्मेदर माना जाता था। लेकिन अब यह स्पष्ट हो गया है कि यूरोपीय देशों से आने वाला वायु प्रदूषण और जहरीली गैसें ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ा रही हैं।

जबकि, पहले कहा जाता था कि इसके पीछे उत्तराखंड में जंगलों में आग लगाने से, लकड़ियां जलाने से और गाड़ियों के प्रदूषण से हिमालय की बर्फ पिघल रही हैं। लेकिन अब इस शोध से एक नया पहलू सामने आया है।