Vikrant Shekhawat : Jul 11, 2020, 11:30 AM
नई दिल्ली | अपने बेबाक बयानों के कारण मीडिया के जरिए अक्सर विवादों में रहने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने फेक एनकाउंटर पर अपनी रायशुमारी की है। उन्होंने कहा है कि विकास दुबे की मौत से यह स्पष्ट है कि 'मुठभेड़' नकली थी। विकास दुबे हिरासत में था और वह निहत्था था। ऐसे में वास्तविक मुठभेड़ कैसे हो सकती थी? 'फेक एनकाउंटर' में सभी कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार किया जाता है और बिना मुक़दमा चलाये अभियुक्त को मार दिया जाता है। इसलिए यह पूरी तरह से असंवैधानिक है। विकास दुबे की पुलिस ‘मुठभेड़’ में हत्या एक बार फिर से गैर न्यायिक हत्याओं की वैधता पर सवाल उठाती है जिसका अक्सर भारतीय पुलिस द्वारा बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है, जैसे कि महाराष्ट्र पुलिस द्वारा मुंबई अंडर वर्ल्ड से निपटने के लिए, खालिस्तान की मांग करने वाले सिखों के खिलाफ पंजाब पुलिस द्वारा, और 2017 में योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद यू.पी पुलिस द्वारा आदि। यह सभी देश भर में गैर न्यायिक हत्याओं का व्यापक रूप से इस्तेमाल है। सच्चाई यह है कि इस तरह के ‘एनकाउंटर’ वास्तव में पुलिस द्वारा की गयी सोची समझी पूर्व निर्धारित हत्याएँ हैं ।संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है: “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा कोई भी व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।” इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति को अपने जीवन से वंचित करने से पहले, राज्य को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) के प्रावधानों के अनुसार मुक़दमा चलाना होगा। मुकदमे में, अभियुक्त को पहले उसके खिलाफ आरोपों के बारे में सूचित करना होगा, फिर खुद का (वकील के माध्यम से) बचाव करने का अवसर दिया जाना होगा, और उसके बाद यदि वह दोषी पाया गया, तभी उसे दोषी करार देकर अदालत मृत्युदंड दे सकती है।दूसरी ओर ‘फेक एनकाउंटर’ में सभी कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार किया जाता है और बिना मुक़दमा चलाये उसे मार दिया जाता है। इसलिए यह पूरी तरह से असंवैधानिक है। पुलिसकर्मी अक्सर यह दावा करके इस पद्धति को सही ठहराते हैं कि कुछ खूंखार अपराधी हैं जिनके खिलाफ कोई भी सबूत देने की हिम्मत नहीं करेगा। इसलिए उनके साथ निपटने का एकमात्र तरीका नकली ‘मुठभेड़’ ही है। हालाँकि, वास्तविकता यह है कि यह एक खतरनाक सोच है और इसका घोर दुरुपयोग किया जा सकता है।उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यवसायी प्रतिद्वंद्वी व्यवसायी को रास्ते से हटाना चाहता है, तो वह कुछ बेईमान पुलिसकर्मियों को रिश्वत दे सकता है ताकि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को ‘आतंकवादी’ घोषित करवाकर नकली ‘मुठभेड़’ में मरवा सके। प्रकाश कदम बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता (2011) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पुलिस द्वारा किए गए फर्जी ‘एनकाउंटर’ सोची समझी हत्याओं के अलावा कुछ नहीं हैं और उन्हें करने वालों को ‘दुर्लभतम मामलों के दुर्लभतम’ ( rarest of rare) की श्रेणी में रख कर मौत की सजा दी जानी चाहिए।