AajTak : Aug 01, 2020, 08:38 AM
Delhi: ईद-उल जुहा यानी बकरीद। ईद-उल फितर के बाद मुसलमानों का ये दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है। दोनों ही मौके पर ईदगाह जाकर या मस्जिदों में विशेष नमाज अदा की जाती है। ईद-उल फितर पर शीर बनाने का रिवाज है, जबकि ईद-उल जुहा पर बकरे या दूसरे जानवरों की कुर्बानी (बलि) दी जाती है।
इस साल हालात एकदम अलग हैं। पूरी दुनिया कोरोना वायरस की महामारी से जूझ रही है। सोशल डिस्टेंसिंग इस वायरस से बचाव में सबसे जरूरी हथियार बताया गया है। ऐसे में त्योहारों पर जमा होने वाली भीड़ पर भी सरकार पाबंदियां लगा रही है।अब जबकि मौका बकरीद का है तो इस पर भी विवाद हो रहा है। खासकर, दक्षिणपंथी विचार से जुड़े कुछ लोगों और नेताओं ने कुर्बानी न करने की भी बात कही है। जिन इलाकों में कुर्बानी करने की जगह नहीं होती, वहां इसके लिए एक जगह भी तय होती है, जहां बड़ी तादाद में लोग अपने-अपने जानवरों की कुर्बानी देते हैं। लेकिन इस बार सार्वजनिक स्थानों पर जमा होने की अनुमति नहीं है।लिहाजा, कुछ लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं और कह रहे हैं कि कुर्बानी जरूरी है, ऐसे में इसकी इजाजत दी जाए। जबकि कई बड़े मुस्लिम संगठनों और धर्मगुरुओं की तरफ से ये अपील भी की गई है कि प्रशासन की गाइडलाइंस का पालन करते हुए ही ईद मनाएं। बहरहाल, इन तमाम विवादों के बीच आपको ये बताते हैं कि बकरीद मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई। साथ ही, उस दौर में ईद का ये पर्व किस अंदाज में मनाया जाता था।
पहले सिर्फ दी जाती थी कुर्बानीइस्लाम धर्म की मान्यता के हिसाब से आखिरी पैगंबर (मैसेंजर) हजरत मोहम्मद हुए। हजरत मोहम्मद के वक्त में ही इस्लाम ने पूर्ण रूप धारण किया और आज जो भी परंपराएं या तरीके मुसलमान अपनाते हैं वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त के ही हैं। लेकिन पैगंबर मोहम्मद से पहले भी बड़ी संख्या में पैगंबर आए और उन्होंने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबरों में से एक थे हजरत इब्राहिम। इन्हीं के दौर से कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ था।हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे। उनके बेटे का नाम इस्माइल था। हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को बहुत प्यार करते थे। एक दिन हजरत इब्राहिम को ख्वाब आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान कीजिए। इस्लामिक जानकार बताते हैं कि ये अल्लाह का हुक्म था और हजरत इब्राहिम ने अपने प्यारे बेटे को कुर्बान करने का फैसला लिया।हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी रख दी। लेकिन इस्माइल की जगह एक दुंबा वहां प्रकट हो गया। जब हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उनके बेटे इस्माइल सही-सलामत बराबर में खड़े हुए थे। कहा जाता है कि ये महज एक इम्तेहान था और उसमें हजरत इब्राहिम कामयाब हो गए। इस तरह जानवरों की कुर्बानी की यह परंपरा शुरू हुई।
विवादमौजूदा वक्त में ईद को लेकर जो विवाद है उस पर मौलाना नोमानी का मानना है कि ''ये पूरा खेल है। संघ की विचारधारा में मुसलमानों की जगह नहीं है, लेकिन वो सीधे-सीधे कभी प्रैक्टिस से रोक नहीं सकते, इसलिए थोड़ा-थोड़ा करके सब चीजें करते रहते हैं। जो नेता विरोध कर रहे हैं उनका हिंदू मत से कोई लेना-देना नहीं है। ये सिर्फ बीजेपी और आरएसएस के फायदे के लिए मुसलमानों के खिलाफ बोलते हैं। हिंदू मत में भी बलि की बात कही गई है।''बता दें कि बीजेपी से जुड़े कुछ नेताओं ने कोरोना के बहाने ईद पर कुर्बानी न करने की बात कही है। कुछ नेताओं ने विवादित बयान भी दिए हैं। इन तमाम विवाद और कोरोना वायरस महामारी के बीच इस बार 1 अगस्त यानी शनिवार को बकरीद का त्योहार मनाया जा रहा है।ईदगाह पर क्यों जाते हैं मुसलमान?हजरत इब्राहिम के जमाने में जानवरों की कुर्बानी तो शुरू हुई लेकिन बकरीद आज के दौर में जिस तरह मनाई जाती है वैसे उनके वक्त में नहीं मनाई जाती थी। आज जिस तरह मस्जिदों या ईदगाह पर जाकर ईद की नमाज पढ़ी जाती है वैसे हजरत इब्राहिम के जमाने में नहीं पढ़ी जाती थी। ईदगाह जाकर नमाज अदा करने का यह तरीका पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ।इस मसले पर इस्लामिक जानकार मौलाना हामिद नोमानी बताते हैं, ''आज जिस अंदाज में ईद मनाई जाती है, वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त में शुरू हुआ। हजरत इब्राहिम के वक्त में कुर्बानी की शुरुआत हुई लेकिन ईदगाह पर जाकर नमाज पढ़ने का सिलसिला पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ। पैगंबर मोहम्मद के नबी बनने के करीब डेढ़ दशक बाद ये तरीका अपनाया गया। उस वक्त पैगंबर मोहम्मद मदीना आ गए थे।''नमाज के लिए ईदगाह क्यों जाते हैं, इस सवाल पर मौलाना नोमानी बताते हैं कि मस्जिद या ईदगाह दोनों की जगह ईद की नमाज पढ़ी जा सकती है। लेकिन ईदगाह जाकर नमाज अदा करना अच्छा तरीका माना जाता है। ऐसा इसलिए है ताकि लोगों को पता चल सके कि उनका कल्चर क्या है, उनका निजाम क्या है, वो कौन हैं।बता दें कि किसी भी बस्ती या कस्बे या शहर में मस्जिदों की संख्या काफी ज्यादा होती है। यहां तक कि मोहल्लों के हिसाब से भी मस्जिद मौजूद हैं। लेकिन किसी शहर या कस्बे में ईदगाह एक ही होती है, जहां आसपास के इलाके के सभी लोग जमा होते हैं और नमाज अदा करते हैं। ईदगाह पर नमाज पढ़ने के अलावा एक-दूसरे से लगे लगकर बधाई देने का भी रिवाज है।
इस साल हालात एकदम अलग हैं। पूरी दुनिया कोरोना वायरस की महामारी से जूझ रही है। सोशल डिस्टेंसिंग इस वायरस से बचाव में सबसे जरूरी हथियार बताया गया है। ऐसे में त्योहारों पर जमा होने वाली भीड़ पर भी सरकार पाबंदियां लगा रही है।अब जबकि मौका बकरीद का है तो इस पर भी विवाद हो रहा है। खासकर, दक्षिणपंथी विचार से जुड़े कुछ लोगों और नेताओं ने कुर्बानी न करने की भी बात कही है। जिन इलाकों में कुर्बानी करने की जगह नहीं होती, वहां इसके लिए एक जगह भी तय होती है, जहां बड़ी तादाद में लोग अपने-अपने जानवरों की कुर्बानी देते हैं। लेकिन इस बार सार्वजनिक स्थानों पर जमा होने की अनुमति नहीं है।लिहाजा, कुछ लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं और कह रहे हैं कि कुर्बानी जरूरी है, ऐसे में इसकी इजाजत दी जाए। जबकि कई बड़े मुस्लिम संगठनों और धर्मगुरुओं की तरफ से ये अपील भी की गई है कि प्रशासन की गाइडलाइंस का पालन करते हुए ही ईद मनाएं। बहरहाल, इन तमाम विवादों के बीच आपको ये बताते हैं कि बकरीद मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई। साथ ही, उस दौर में ईद का ये पर्व किस अंदाज में मनाया जाता था।
पहले सिर्फ दी जाती थी कुर्बानीइस्लाम धर्म की मान्यता के हिसाब से आखिरी पैगंबर (मैसेंजर) हजरत मोहम्मद हुए। हजरत मोहम्मद के वक्त में ही इस्लाम ने पूर्ण रूप धारण किया और आज जो भी परंपराएं या तरीके मुसलमान अपनाते हैं वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त के ही हैं। लेकिन पैगंबर मोहम्मद से पहले भी बड़ी संख्या में पैगंबर आए और उन्होंने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबरों में से एक थे हजरत इब्राहिम। इन्हीं के दौर से कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ था।हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे। उनके बेटे का नाम इस्माइल था। हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को बहुत प्यार करते थे। एक दिन हजरत इब्राहिम को ख्वाब आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान कीजिए। इस्लामिक जानकार बताते हैं कि ये अल्लाह का हुक्म था और हजरत इब्राहिम ने अपने प्यारे बेटे को कुर्बान करने का फैसला लिया।हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी रख दी। लेकिन इस्माइल की जगह एक दुंबा वहां प्रकट हो गया। जब हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उनके बेटे इस्माइल सही-सलामत बराबर में खड़े हुए थे। कहा जाता है कि ये महज एक इम्तेहान था और उसमें हजरत इब्राहिम कामयाब हो गए। इस तरह जानवरों की कुर्बानी की यह परंपरा शुरू हुई।
विवादमौजूदा वक्त में ईद को लेकर जो विवाद है उस पर मौलाना नोमानी का मानना है कि ''ये पूरा खेल है। संघ की विचारधारा में मुसलमानों की जगह नहीं है, लेकिन वो सीधे-सीधे कभी प्रैक्टिस से रोक नहीं सकते, इसलिए थोड़ा-थोड़ा करके सब चीजें करते रहते हैं। जो नेता विरोध कर रहे हैं उनका हिंदू मत से कोई लेना-देना नहीं है। ये सिर्फ बीजेपी और आरएसएस के फायदे के लिए मुसलमानों के खिलाफ बोलते हैं। हिंदू मत में भी बलि की बात कही गई है।''बता दें कि बीजेपी से जुड़े कुछ नेताओं ने कोरोना के बहाने ईद पर कुर्बानी न करने की बात कही है। कुछ नेताओं ने विवादित बयान भी दिए हैं। इन तमाम विवाद और कोरोना वायरस महामारी के बीच इस बार 1 अगस्त यानी शनिवार को बकरीद का त्योहार मनाया जा रहा है।ईदगाह पर क्यों जाते हैं मुसलमान?हजरत इब्राहिम के जमाने में जानवरों की कुर्बानी तो शुरू हुई लेकिन बकरीद आज के दौर में जिस तरह मनाई जाती है वैसे उनके वक्त में नहीं मनाई जाती थी। आज जिस तरह मस्जिदों या ईदगाह पर जाकर ईद की नमाज पढ़ी जाती है वैसे हजरत इब्राहिम के जमाने में नहीं पढ़ी जाती थी। ईदगाह जाकर नमाज अदा करने का यह तरीका पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ।इस मसले पर इस्लामिक जानकार मौलाना हामिद नोमानी बताते हैं, ''आज जिस अंदाज में ईद मनाई जाती है, वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त में शुरू हुआ। हजरत इब्राहिम के वक्त में कुर्बानी की शुरुआत हुई लेकिन ईदगाह पर जाकर नमाज पढ़ने का सिलसिला पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ। पैगंबर मोहम्मद के नबी बनने के करीब डेढ़ दशक बाद ये तरीका अपनाया गया। उस वक्त पैगंबर मोहम्मद मदीना आ गए थे।''नमाज के लिए ईदगाह क्यों जाते हैं, इस सवाल पर मौलाना नोमानी बताते हैं कि मस्जिद या ईदगाह दोनों की जगह ईद की नमाज पढ़ी जा सकती है। लेकिन ईदगाह जाकर नमाज अदा करना अच्छा तरीका माना जाता है। ऐसा इसलिए है ताकि लोगों को पता चल सके कि उनका कल्चर क्या है, उनका निजाम क्या है, वो कौन हैं।बता दें कि किसी भी बस्ती या कस्बे या शहर में मस्जिदों की संख्या काफी ज्यादा होती है। यहां तक कि मोहल्लों के हिसाब से भी मस्जिद मौजूद हैं। लेकिन किसी शहर या कस्बे में ईदगाह एक ही होती है, जहां आसपास के इलाके के सभी लोग जमा होते हैं और नमाज अदा करते हैं। ईदगाह पर नमाज पढ़ने के अलावा एक-दूसरे से लगे लगकर बधाई देने का भी रिवाज है।