रामप्रसाद बिस्मिल / आत्मकथा का अंतिम भाग पढ़कर आप जानेंगे कि 'सरफरोशी की तमन्ना' वाले बिस्मिल ने क्यों लिखी थी मर्सी पिटिशन

बिस्मिल! यानि की आत्मिक रूप से आहत। यह तखल्लुस अर्था उपनाम था रामप्रसाद का। जिन्हें पंडित राम प्रसाद भी कहा जाता है। वही राम प्रसाद जिन्होंने सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है को आवाज दी थी। बिस्मिल कहते थेदेश के युवाओं को उनकी आत्मकथा जरूर पढ़नी चाहिए। हम उनकी जयंती के मौके पर उसे जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं। बिस्मिल ने अशफाक के साथ मिलकर ऐसे—ऐसे काम किए, जो देश में साम्प्रदायिक एकता की पहली पैरोकारी करता है।

Vikrant Shekhawat : Jun 11, 2020, 11:39 AM
बिस्मिल! यानि की आत्मिक रूप से आहत। यह तखल्लुस अर्था उपनाम था रामप्रसाद का। जिन्हें पंडित राम प्रसाद भी कहा जाता है। वही राम प्रसाद जिन्होंने सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है को आवाज दी थी। बिस्मिल कहते थे 

"अब ना अहले वलवले हैं

और न अरमानों की भीड़

एक मिट जाने की हसरत,

अब दिले-बिस्मिल में है!"


जिसके दिल में मिट ही जाने की हसरत थी। जो यह कहता था

"हम शहीदाने वफा का 

दीन—ओ—ईमां कुछ और है

सजदे करते हैं सदा

पांव पर जल्लाद के!"

उन्होंने फांसी से पूर्व मर्सी पिटिशन लिखी थी, क्यों लिखी, इसका  जवाब खुद उन्होंने अपनी आत्मकथा निज ​जीवन की एक छटा में दिया है। देश के युवाओं को उनकी आत्मकथा जरूर पढ़नी चाहिए। हम उनकी जयंती के मौके पर उसे जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं। बिस्मिल ने अशफाक के साथ मिलकर ऐसे—ऐसे काम किए, जो देश में साम्प्रदायिक एकता की पहली पैरोकारी करता है।


अन्तिम समय की बातें
आज 16 दिसम्बर 1927 ई० को निम्नलिखित पंक्‍तियों का उल्लेख कर रहा हूँ, जबकि 19 दिसम्बर 1927 ई० सोमवार (पौष कृष्‍णा 11 सम्वत् 1984 वि०) को 6 बजे प्रातःकाल इस शरीर को फाँसी पर लटका देने की तिथि निश्‍चित हो चुकी है। अतएव नियत समय पर इहलीला संवरण करनी होगी। यह सर्वशक्‍तिमान प्रभु की लीला है। सब कार्य उसकी इच्छानुसार ही होते हैं। यह परमपिता परमात्मा के नियमों का परिणाम है कि किस प्रकार किसको शरीर त्यागना होता है। मृत्यु के सकल उपक्रम निमित्त मात्र हैं। जब तक कर्म क्षय नहीं होता, आत्मा को जन्म मरण के बन्धन में पड़ना ही होता है, यह शास्‍त्रों का निश्‍चय है। यद्यपि यह बात वह परब्रह्म ही जानता है कि किन कर्मों के परिणामस्वरूप कौन सा शरीर इस आत्मा को ग्रहण करना होगा किन्तु अपने लिए यह मेरा दृढ़ निश्‍चय है कि मैं उत्तम शरीर धारण कर नवीन शक्‍तियों सहित अति शीघ्र ही पुनः भारतवर्ष में ही किसी निकटवर्ती सम्बन्धी या इष्‍ट मित्र के गृह में जन्म ग्रहण करूँगा, क्योंकि मेरा जन्म-जन्मान्तर उद्देश्य रहेगा कि मनुष्य मात्र को सभी प्रकृति पदार्थों पर समानाधिकार प्राप्‍त हो। कोई किसी पर हकूमत न करे। सारे संसार में जनतन्त्र की स्थापना हो। वर्तमान समय में भारतवर्ष की अवस्था बड़ी शोचनीय है। अतःएव लगातार कई जन्म इसी देश में ग्रहण करने होंगे और जब तक कि भारतवर्ष के नर-नारी पूर्णतया सर्वरूपेण स्वतन्त्र न हो जायें, परमात्मा से मेरी यह प्रार्थना होगी कि वह मुझे इसी देश में जन्म दे, ताकि उसकी पवित्र वाणी - 'वेद वाणी' का अनुपम घोष मनुष्य मात्र के कानों तक पहुँचाने में समर्थ हो सकूँ। सम्भव है कि मैं मार्ग-निर्धारण में भूल करूँ, पर इसमें मेरा कोई विशेष दोष नहीं, क्योंकि मैं भी तो अल्पज्ञ जीव मात्र ही हूँ। भूल न करना केवल सर्वज्ञ से ही सम्भव है। हमें परिस्थितियों के अनुसार ही सब कार्य करने पड़े और करने होंगे। परमात्मा अगले जन्म से सुबुद्धि प्रदान करे ताकि मैं जिस मार्ग का अनुसरण करूँ वह त्रुटि रहित ही हो।

अब मैं उन बातों का उल्लेख कर देना उचित समझता हूं, जो काकोरी षड्यन्त्र के अभियुक्‍तों के सम्बन्ध में सेशन जज के फैसला सुनाने के पश्‍चात घटित हुई । 6 अप्रैल सन् 1927 ई० को सेशन जज ने फैसला सुनाया था । 7 जुलाई सन् 1927 ई० को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई । इसमें कुछ की सजाएं बढ़ीं और एकाध की कम भी हुईं । अपील होने की तारीख से पहले मैंने संयुक्‍त प्रान्त के गवर्नर की सेवा में एक मेमोरियल भेजा था, जिसमें प्रतिज्ञा की थी कि अब भविष्य में क्रान्तिकारी दल से कोई सम्बन्ध न रखूंगा । इस मेमोरियल का जिक्र मैंने अपनी अन्तिम दया-प्रार्थना पत्र में, जो मैंने चीफ कोर्ट के जजों को दिया था, कर दिया था । किन्तु चीफ कोर्ट के जजों ने मेरी किसी प्रकार की प्रार्थना स्वीकार न की । मैंने स्वयं ही जेल से अपने मुकदमे की बहस लिखकर भेजी छापी गई । जब यह बहस चीफ कोर्ट के जजों ने सुनी उन्हें बड़ा सन्देह हुआ कि बहस मेरी लिखी हुई न थी । इन तमाम बातों का नतीजा यह निकला कि चीफ कोर्ट अवध द्वारा मुझे महाभयंकर षड्यन्त्रकारी की पदवी दी गई । मेरे पश्‍चाताप पर जजों को विश्‍वास न हुआ और उन्होंने अपनी धारणा को इस प्रकार प्रकट किया कि यदि यह (रामप्रसाद) छूट गया तो फिर वही कार्य करेगा । बुद्धि की प्रखरता तथा समझ पर प्रकाश डालते हुए मुझे 'निर्दयी हत्यारे' के नाम से विभूषित किया गया । लेखनी उनके हाथ में थी, जो चाहे सो लिखते, किन्तु काकोरी षड्यन्त्र का चीफ कोर्ट का आद्योपान्त फैसला पढ़ने से भलीभांति विदित होता है कि मुझे मृत्युदण्ड किस ख्याल से दिया गया । यह निश्‍चय किया गया कि रामप्रसाद ने सेशन जज के विरुद्ध अपशब्द कहे हैं, खुफिया विभाग के कार्यकर्त्ताओं पर लांछन लगाये हैं अर्थात् अभियोग के समय जो अन्याय होता था, उसके विरुद्ध आवाज उठाई है, अतःएव रामप्रसाद सब से बड़ा गुस्ताख मुलजिम है । अब माफी चाहे वह किसी रूप में मांगे, नहीं दी जा सकती ।

चीफ कोर्ट से अपील खारिज हो जाने के बाद यथानियम प्रान्तीय गवर्नर तथा फिर वाइसराय के पास दया प्रार्थना की गई । रामप्रसाद 'बिस्मिल', राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रोशनसिंह तथा अशफाक‌उल्ला खां के मृत्यु-दण्ड को बदलकर अन्य दूसरी सजा देने की सिफारिश करते हुए संयुक्‍त प्रान्त की कौंसिल के लगभग सभी निर्वाचित हुए मेम्बरों ने हस्ताक्षर करके निवेदन पत्र दिया । मेरे पिता ने ढ़ाई सौ रईस, आनरेरी मजिस्ट्रेट तथा जमींदारों के हस्ताक्षर से एक अलग प्रार्थना पत्र भेजा, किन्तु श्रीमान सर विलियम मेरिस की सरकार ने एक न सुनी ! उसी समय लेजिस्लेटिव असेम्बली तथा कौंसिल ऑफ स्टेट के 78 सदस्यों ने हस्ताक्षर करके वाइसराय के पास प्रार्थनापत्र भेजा कि काकोरी षड्यन्त्र के मृत्युदण्ड पाए हुओं को मृत्युदण्ड की सजा बदल कर दूसरी सजा कर दी जाए, क्योंकि दौरा जज ने सिफारिश की है कि यदि ये लोग पश्‍चाताप करें तो सरकार दण्ड कम दे । चारों अभियुक्‍तों ने पश्‍चाताप प्रकट कर दिया है । किन्तु वाइसराय महोदय ने भी एक न सुनी ।

इस विषय में माननीय पं० मदनमोहन मालवीय जी ने तथा असेम्बली के कुछ अन्य सदस्यों ने वाइसराय से मिलकर भी प्रयत्‍न किया था कि मृत्युदण्ड न दिया जाए । इतना होने पर सबको आशा थी कि वाइसराय महोदय अवश्यमेव मृत्युदण्ड की आज्ञा रद्द कर देंगे । इसी हालत में चुपचाप विजयदशमी से दो दिन पहले जेलों को तार भेज दिए गए कि दया नहीं होगी सब की फांसी की तारीख मुकर्रर हो गई । जब मुझे सुपरिण्टेण्डेंट जेल ने तार सुनाया, तो मैंने भी कह दिया था कि आप अपना काम कीजिए । किन्तु सुपरिण्टेण्डेंट जेल के अधिक कहने पर कि एक तार दया-प्रार्थना का सम्राट के पास भेज दो, क्योंकि यह उन्होंने एक नियम सा बना रखा है कि प्रत्येक फांसी के कैदी की ओर से जिस की भिक्षा की अर्जी वाइसराय के यहां खारिज हो जाती है, वह एक तार सम्राट के नाम से प्रान्तीय सरकार के पास अवश्य भेजते हैं । कोई दूसरा जेल सुपरिण्टेण्डेंट ऐसा नहीं करता । उपरोक्‍त तार लिखते समय मेरा कुछ विचार हुआ कि प्रिवी-कौंसिल इंग्लैण्ड में अपील की जाए । मैंने श्रीयुत मोहनलाल सक्सेना वकील लखनऊ को सूचना दी । बाहर किसी को वाइसराय द्वारा अपील खरिज करने की बात पर विश्‍वास भी न हुआ । जैसे तैसे करके श्रीयुत मोहनलाल द्वारा प्रिवीकौंसिल में अपील कराई गई । नतीजा तो पहले से मालूम था । वहां से भी अपील खारिज हुई । यह जानते हुए कि अंग्रेज सरकार कुछ भी न सुनेगी मैंने सरकार को प्रतिज्ञा-पत्र क्यों लिखा ? क्यों अपीलों पर अपीलें तथा दया-प्रार्थनाएं कीं ? इस प्रकार के प्रश्‍न उठ सकते हैं । समझ में सदैव यही आया कि राजनीति एक शतरंज के खेल के समान है । शतरंज के खेलने वाले भली भांति जानते हैं कि आवश्यकता होने पर किस प्रकार अपने मोहरे मरवा देने पड़ते हैं । बंगाल आर्डिनेन्स के कैदियों के छोड़ने या उन पर खुली अदालत में मुकदमा चलाने के प्रस्ताव जब असेम्बली में पेश किए, तो सरकार की ओर से बड़े जोरदार शब्दों में कहा गया कि सरकार के पास पूरा सबूत है । खुली अदालत में अभियोग चलने से गवाहों पर आपत्ति आ सकती है । यदि आर्डिनेन्स के कैदी लेखबद्ध प्रतिज्ञा-पत्र दाखिल कर दें कि वे भविष्य में क्रान्तिकारी आन्दोलन से कोई सम्बन्ध न रखेंगे, तो सरकार उन्हें रिहाई देने के विषय में विचार कर सकती है । बंगाल में दक्षिणेश्‍वर तथा शोभा बाजार बम केस आर्डिनेन्स के बाद चले । खुफिया विभाग के डिप्टी सुपरिण्टेण्डेंट के कत्ल का मुकदमा भी खुली अदालत में हुआ, और भी कुछ हथियारों के मुकदमे खुली अदलत में चलाये गए, किन्तु कोई एक भी दुर्घटना या हत्या की सूचना पुलिस न दे सकी । काकोरी षड्यन्त्र केस पूरे डेढ़ साल तक खुली अदालतों में चलता रहा । सबूत की ओर से लगभग तीन सौ गवाह पेश किये गए । कई मुखबिर तथा इकबाली खुले तौर से घूमते रहे, पर कहीं कोई दुर्घटना या किसी को धमकी देने की कोई सूचना पुलिस ने न दी । सरकार की इन बातों की पोल खोलने की गरज से मैंने लेखबद्ध बंधेज सरकार को दिया । सरकार के कथनानुसार जिस प्रकार बंगाल आर्डिनेन्स के कैदियों के सम्बन्ध में सरकार के पास पूरा सबूत था और सरकार उनमें से अनेकों को भयंकर षड्यन्त्रकारी दल का सदस्य तथा हत्याओं का जिम्मेदार समझती तथा कहती थी, तो इसी प्रकार काकोरी षड्यन्त्रकारियों के लेखबद्ध प्रतिज्ञा करने पर कोई गौर क्यों न किया ? बात यह है कि जबरा मारे रोने न देय । मुझे तो भली भांति मालूम था कि संयुक्‍त प्रान्त में जितने राजनैतिक अभियोग चलाये जाते हैं, उनके फैसले खुफिया पुलिस की इच्छानुसार लिखे जाते हैं । बरेली पुलिस कांस्टेबलों की हत्या के अभियोग में नितान्त निर्दोष नवयुवकों को फंसाया गया और सी० आई० डी० वालों ने अपनी डायरी दिखलाकर फैसला लिखाया । काकोरी षड्यन्त्र में भी अन्त में ऐसा ही हुआ । सरकार की सब चालों को जानते हुए भी मैंने सब कार्य उसकी लम्बी लम्बी बातों की पोल खोलने के लिए ही किये । काकोरी के मृत्युदण्ड पाये हुओं की दया प्रार्थना न स्वीकार करने का कोई विशेष कारण सरकार के पास नहीं । सरकार ने बंगाल आर्डिनेंस के कैदियों के सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, सो काकोरी वालों ने किया । मृत्युदण्ड को रद्द कर देने से देश में किसी प्रकार की शान्ति भंग होने अथवा किसी विप्लव के हो जाने की संभावना न थी । विशेषतया तब जब कि देश भर के सब प्रकार के हिन्दू-मुस्लिम असेम्बली के सदस्यों ने इसकी सिफारिश की थी । षड्यन्त्रकारियों की इतनी बड़ी सिफारिश इससे पहले कभी नहीं हुई । किन्तु सरकार तो अपना पास सेधा रखना चाहती है । उसे अपने बल पर विश्‍वास है । सर विलियम मेरिस ने ही स्वयं शाहजहांपुर तथा इलाहाबाद के हिन्दु मुसलिम दंगों के अभियुक्‍तों के मृत्युदंड रद्द किये हैं, जिनको कि इलाहाबाद हाईकोर्ट से मृत्युदण्ड ही देना उचित समझा गया था और उन लोगों पर दिन दहाड़े हत्या करने के सीधे सबूत मौजूद थे । ये सजायें ऐसे समय माफ की गई थीं, जबकि नित्य नये हिन्दू मुसलिम दंगे बढ़ते ही जाते थे । यदि काकोरी के कैदियों को मत्युदंड माफ करके दूसरी सजा देने से दूसरों का उत्साह बढ़ता तो क्या इसी प्रकार मजहबी दंगों के सम्बन्ध में भी नहीं हो सकता था ? मगर वहां तो मामला कुछ और ही है, जो अब भारतवासियों के नरम से नरम दल के नेताओं के भी शाही कमीशन के मुकर्रर होने और उसमें एक भी भारतवासी के न चुने जाने, पार्लियामेंट में भारत सचिव लार्ड बर्कनहेड के तथा अन्य मजदूर नेताओं के भाषणों से भली भांति समझ में आया है कि किस प्रकार भारतवर्ष को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने की चालें चली जा रही हैं ।

मैं प्राण त्यागते समय निराश नहीं हूं कि हम लोगों के बलिदान व्यर्थ गए । मेरा तो विश्‍वास है कि हम लोगों की छिपी हुई आहों का ही यह नतीजा हुआ कि लार्ड बर्कनहेड के दिमाग में परमात्मा ने एक विचार उपस्थित किया कि हिन्दुस्तान के हिन्दू मुसलिम झगड़ों का लाभ उठाओ और भारतवर्ष की जंजीरें और कस दो । गए थे रोजा छुड़ाने, नमाज गले पड़ गई ! भारतवर्ष के प्रत्येक विख्यात राजनैतिक दल ने और हिन्दुओं के तो लगभग सभी तथा मुसलमानों के अधिकतर नेताओं ने एक स्वर होकर रायल कमीशन की नियुक्‍ति तथा उसके सदस्यों के विरुद्ध घोर विरोध व्यक्त किया है, और अगली कांग्रेस (मद्रास) पर सब राजनैतिक दल के नेता तथा हिन्दू मुसलमान एक होने जा रहे हैं । वाइसराय ने जब हम काकोरी के मत्युदण्ड वालों की दया प्रार्थना अस्वीकार की थी, उसी समय मैंने श्रीयुत मोहनलाल जी को पत्र लिखा था कि हिन्दुस्तानी नेताओं को तथा हिन्दू-मुसलमानों को अगली कांग्रेस पर एकत्रित हो हम लोगों की याद मनानी चाहिए । सरकार ने अशफाकउल्ला को रामप्रसाद का दाहिना हाथ करार दिया । अशफाकउल्ला कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्यसमाजी रामप्रसाद का क्रान्तिकारी दल के सम्बन्ध में यदि दाहिना हाथ बनते, तब क्या नये भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू मुसलमान अपने निजी छोटे छोटे फायदों का ख्याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते ?

परमात्मा ने मेरी पुकार सुन ली और मेरी इच्छा पूरी होती दिखाई देती है । मैं तो अपना कार्य कर चुका । मैंने मुसलमानों में से एक नवयुवक निकालकर भारतवासियों को दिखला दिया, जो सब परीक्षाओं में पूर्ण उत्तीर्ण हुआ । अब किसी को यह कहने का साहस न होना चाहिए कि मुसलमानों पर विश्‍वास न करना चाहिए । पहला तजुर्बा था, जो पूरी तौर से कामयाब हुआ । अब देशवासियों से यही प्रार्थना है कि यदि वे हम लोगों के फांसी पर चढ़ने से जरा भी दुखित हुए हों, तो उन्हें यही शिक्षा लेनी चाहिए कि हिन्दू-मुसलमान तथा सब राजनैतिक दल एक होकर कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि मानें । जो कांग्रेस तय करे, उसे सब पूरी तौर से मानें और उस पर अमल करें । ऐसा करने के बाद वह दिन बहुत दूर न होगा जबकि अंग्रेजी सरकार को भारतवासियों की मांग के सामने सिर झुकाना पड़े, और यदि ऐसा करेंगे तब तो स्वराज्य कुछ दूर नहीं । क्योंकि फिर तो भारतवासियों को काम करने का पूरा मौका मिल जाएगा । हिन्दू-मुस्लिम एकता ही हम लोगों की यादगार तथा अन्तिम इच्छा है, चाहे वह कितनी कठिनता से क्यों न प्राप्‍त हो । जो मैं कह रहा हूं वही श्री अशफाकउल्ला खां वारसी का भी मत है, क्योंकि अपील के समय हम दोनों लखनऊ जेल में फांसी की कोठरियों में आमने सामने कई दिन तक रहे थे । आपस में हर तरह की बातें हुई थीं । गिरफ्तारी के बाद से हम लोगों की सजा बढ़ने तक श्री अशफाकउल्ला खां की बड़ी भारी उत्कट इच्छा यही थी कि वह एक बार मुझ से मिल लेते जो परमात्मा ने पूरी की ।

श्री अशफाकउल्ला खां तो अंग्रेजी सरकार से दया प्रार्थना करने पर राजी ही न थे । उसका तो अटल विश्‍वास यही था कि खुदाबन्द करीम के अलावा किसी दूसरे से प्रार्थना न करनी चाहिए, परन्तु मेरे विशेष आग्रह से ही उन्होंने सरकार से दया प्रार्थना की थी । इसका दोषी मैं ही हूं जो मैंने अपने प्रेम के पवित्र अधिकारों का उपयोग करके श्री अशफाकउल्ला खां को उनके दृढ़ निश्‍चय से विचलित किया । मैंने एक पत्र द्वारा अपनी भूल स्वीकार करते हुए भ्रातृ-द्वितीया के अवसर पर गोरखपुर जेल से श्री अशफाक को पत्र लिखकर क्षमा प्रार्थना की थी । परमात्मा जाने कि वह पत्र उनके हाथों तक पहुंचा भी था या नहीं । खैर ! परमात्मा की ऐसी इच्छा थी कि हम लोगों को फांसी दी जाए, भारतवासियों के जले हुए दिलों पर नमक पड़े, वे बिलबिला उठें और हमारी आत्माएं उनके कार्य को देखकर सुखी हों । जब हम नवीन शरीर धारण करके देश सेवा में योग देने को उद्यत हों, उस समय तक भारतवर्ष की राजनैतिक स्थिति पूर्णतया सुधरी हुई हो । जनसाधारण का अधिक भाग सुरक्षित हो जाए । ग्रामीण लोग भी अपने कर्त्तव्य समझने लग जाएं ।

प्रिवी कौंसिल में अपील भिजवाकर मैंने जो व्यर्थ का अपव्यय करवाया, उसका भी एक विशेष अर्थ था । सब अपीलों का तात्पर्य यह था कि मृत्युदंड उपयुक्त नहीं । क्योंकि न जाने किसकी गोली से आदमी मारा गया । अगर डकैती डालने की जिम्मेदारी के ख्याल से मृत्युदण्ड दिया गया तो चीफ कोर्ट के फैसले के अनुसार भी मैं ही डकैतियों का जिम्मेदार तथा नेता था, और प्रान्त का नेता भी मैं ही था । अतःएव मृत्युदण्ड तो अकेला मुझे ही मिलना चाहिए था । अन्य तीन को फांसी नहीं देनी चाहिए थी । इसके अतिरिक्त दूसरी सजाएं सब स्वीकार होती । पर ऐसा क्यों होने लगा ? मैं विलायती न्यायालय की भी परीक्षा करके स्वदेशवासियों के लिए उदाहरण छोड़ना चाहता था कि यदि कोई राजनैतिक अभियोग चले तो वे कभी भूलकर के भी किसी अंग्रेजी अदालत का विश्‍वास न करें । तबीयत आये तो जोरदार बयान दें । अन्यथा मेरी तो राय है कि अंग्रेजी अदालत के सामने न तो कभी कोई बयान दें और न कोई सफाई पेश करें, काकोरी षड्यन्त्र के अभियोग से शिक्षा प्राप्‍त कर लें । इस अभियोग में सब प्रकार के उदाहरण मौजूद हैं । प्रिवी कौंसिल में अपील दाखिल कराने का एक विशेष अर्थ यह भी था कि मैं कुछ समय तक फांसी की तारीख टलवा कर यह परीक्षा करना चाहता था कि नवयुवकों में कितना दम है और देशवासी कितनी सहायता दे सकते हैं । इससे मुझे बड़ी निराशाजनक सफलता हुई । अन्त में मैंने निश्‍चय किया था कि यदि हो सके तो जेल से निकल भागूं । पैसा हो जाने से सरकार को अन्य तीन फांसी वालों की सजा माफ कर देनी पड़ेगी और यदि न करते तो मैं करा लेता । मैंने जेल से भागने के अनेकों प्रयत्‍न किये, किन्तु बाहर से कोई सहायता न मिल सकी । यहीं तो हृदय को आघात लगता है कि जिस देश में मैंने इतना बड़ा क्रान्तिकारी आन्दोलन तथा षड्यन्त्रकारी दल खड़ा किया था, वहां से मुझे प्राण-रक्षा के लिए एक रिवाल्वर तक न मिल सका ! एक नवयुवक भी सहायता को न आ सका ! अन्त में फांसी पा रहा हूं । फांसी पाने का मुझे कोई शौक नहीं, क्योंकि मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि परमात्मा को यही मंजूर था । मगर मैं नवयुवकों से फिर भी नम्र निवेदन करता हूं कि जब तक भारतवासियों की अधिक संख्या सुशिक्षित न हो जाए, जब तक उन्हें कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य* का ज्ञान न हो जाए, तब तक वे भूलकर भी किसी प्रकार के क्रान्तिकारी षड्यन्त्रों में भाग न लें । यदि देश सेवा की इच्छा हो तो खुले आन्दोलनों द्वारा यथाशक्‍ति कार्य करें, अन्यथा उनका बलिदान उपयोगी न होगा । दूसरे प्रकार से इससे अधिक देश सेवा हो सकती है, जो ज्यादा उपयोगी सिद्ध होगी । परिस्थिति अनुकूल न होने से ऐसे आन्दोलनों में परिश्रम प्रायः व्यर्थ जाता है । जिसकी भलाई के लिए करो, वही बुरे बुरे नाम धरते हैं और अन्त में मन ही मन कुढ़ कर प्राण त्यागने पड़ते हैं।

देशवासियों से यही अन्तिम विनय है कि जो कुछ करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें । इसी से सबका भला होगा।
मरते 'बिस्मिल' 'रोशन' 'लहरी' 'अशफाक' अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैकड़ों इनके रुधिर की धार से ॥


यह आत्मकथा श्री बिस्मिल ही की बदौलत निशुल्क आनलाइन उपलब्ध है, यहां पढ़ सकते हैं।