Indo-China / US आया भारत के साथ तो चीन को लगी मिर्ची, दिया ताइवान का उदाहरण

चीन और भारत के बीच सीमा विवाद रातों रात नहीं पैदा हुआ है। एक वक्त था जब दोनों देशों के बीच तनाव एक बड़ा खतरा था। भारत उस वक्त भी किसी देश पर निर्भर नहीं हुआ इसलिए ये तर्क बिल्कुल गलत है कि मौजूदा सीमा तनाव में भारत किसी एक गुट के साथ जाने के लिए मजबूर हो जाएगा। रैचमैन जैसे लोगों ने अमेरिका के आकर्षण का गलत अनुमान लगा लिया है।

AajTak : Jun 26, 2020, 10:04 AM
Indo-China: भारत के साथ तनाव के बीच चीन को इस बात की चिंता सताने लगी है कि कहीं भारत और अमेरिका उसके खिलाफ लामबंद ना हो जाएं। अमेरिका ने गुरुवार को यूरोप में अपनी सेनाएं घटाकर एशिया में तैनाती बढ़ाने का अहम रणनीतिक फैसला किया है। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि भारत और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के सामने चीन के बढ़ते खतरे को देखते हुए ही अमेरिका यूरोप में अपने सैनिकों की तैनाती को घटाकर इन्हें सही जगहों पर तैनात करने जा रहा है। इन घटनाक्रमों के बीच चीन की सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने एक संपादकीय लिखा है जिसमें भारत के अमेरिकी के करीब  जाने को लेकर तीखी प्रतिक्रिया दी गई है।

दरअसल, फाइनेंशियल टाइम्स के एक कॉलमनिस्ट गिडोन रैचमैन ने लिखा कि भारत ने नए शीत युद्ध में एक पक्ष चुन लिया है। इसके साथ ही कहा कि यह चीन की मूर्खता है कि वह अपने प्रतिद्वंदी को अमेरिका के पाले में डाल रहा है।

इस लेख को लेकर ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, "चीन और भारत के बीच सीमा विवाद रातों रात नहीं पैदा हुआ है। एक वक्त था जब दोनों देशों के बीच तनाव एक बड़ा खतरा था। भारत उस वक्त भी किसी देश पर निर्भर नहीं हुआ इसलिए ये तर्क बिल्कुल गलत है कि मौजूदा सीमा तनाव में भारत किसी एक गुट के साथ जाने के लिए मजबूर हो जाएगा।"

अखबार ने लिखा, चीन की सीमा तनाव को एक युद्ध की तरफ ले जाने की कोई मंशा नहीं है। गलवान घाटी में भारतीय पक्ष के उकसावे के बाद ही संघर्ष शुरू हुआ। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद स्वीकार किया कि भारतीय सीमा के भीतर किसी ने घुसपैठ नहीं की।

ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, रैचमैन जैसे लोगों ने अमेरिका के आकर्षण का गलत अनुमान लगा लिया है। हमने अमेरिका के हाथों में पड़े देशों और क्षेत्रों को देखा है, वे सभी अमेरिका या उसके हितों के लिए काम करने के इच्छुक हैं। चाहे ऑस्ट्रेलिया हो, कनाडा हो या ताइवान द्वीप हो, इन सबकी गिनती इसी श्रेणी में की जा सकती है। लेकिन ये देश या तो अपने हितों का सौदा कर रहे हैं या फिर अपनी संप्रभुता अमेरिका के हाथों गंवा रहे हैं। ताइवान के मामले में संप्रभुता की बात ही करना बेकार है क्योंकि उसके सारे हित अमेरिका के नियंत्रण में है। वह चाहे या ना चाहे, उन्हें अमेरिका के इशारों पर नाचना पड़ता है। हालांकि, ये कल्पना करना मुश्किल है कि कोई वैश्विक महाताकत अमेरिका के हाथों में रहना पसंद करेगी। भारत की ये एक विशेषता है कि वह अपनी कूटनीतिक स्वतंत्रता कायम रखना चाहता है।

चीनी सरकार के मुखपत्र ने लिखा है, वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच के संबंध पश्चिमी विश्लेषकों की राय से अभी बहुत दूर हैं। दोनों पक्ष सिर्फ एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हैं। अमेरिका हिंद-प्रशांत की रणनीति में भारत को अपना प्यादा बनाना चाहता है ताकि चीन को रोक सके और विश्व में अपना प्रभुत्व बनाए रख सके। दूसरी तरफ, भारत अमेरिका का इस्तेमाल दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन के प्रभाव को काउंटर करने और पाकिस्तान को रोकने के लिए अमेरिका के साथ करीबी बढ़ा रहा है। हालांकि, भारत भी इस बात को अच्छी तरह जानता है कि अमेरिका उसके लक्ष्य को पूरा करने में उसकी मदद नहीं करेगा।

ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि अमेरिका भारत की रूस के साथ आर्म डील को कम करके देख रहा है और भारत की सैन्य उद्योग पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की उम्मीद कर रहा है। जबकि ये असंभव है कि भारत को इसका अंदाजा ना हो। रूस से भारत की हथियारों की खरीद करके नई दिल्ली ने अपना रुख साफ कर दिया है।

अंत में ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, "भारत-चीन सीमा विवाद में चाहे कितने भी उतार-चढ़ाव क्यों ना आएं और भारतीय पक्ष चाहे आगे जो कदम उठाए, चीन का यही पक्ष है कि सभी विवादों का समाधान सिर्फ बातचीत से ही किया जा सकता है और इसमें हमें किसी बाहरी ताकत के व्यवधान की जरूरत नहीं है।"