Vikrant Shekhawat : Nov 15, 2024, 09:20 PM
Jharkhand Elections 2024: झारखंड, जो 24 साल पहले अस्तित्व में आया, इस बार एक अभूतपूर्व राजनीतिक मोड़ पर खड़ा है। राज्य की राजनीति में न तो पारंपरिक मुद्दों की गूंज है, न ही पुराने समीकरणों की पकड़। ऐसे समय में, चुनावी दंगल में उतरे नेता पुरानी समस्याओं को उठाने में असमर्थ नजर आ रहे हैं। झारखंड की राजनीतिक तस्वीर में इस बदलाव के पीछे पांच प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं, जिन्होंने इस चुनाव को पूरी तरह से बदल दिया है।
2019 में हेमंत सोरेन की वापसी ने इस मुद्दे को मजबूती दी थी, लेकिन इस बार यह चर्चा के केंद्र से गायब है। बीजेपी इस पर जोर नहीं दे पा रही, जबकि जेएमएम इस मुद्दे को लागू न कर पाने के कारण बचाव की मुद्रा में है।
जातीय संघर्षों की जगह आदिवासी अस्मिता और बाहरी-घुसपैठी के सवाल प्राथमिक बन गए हैं। कुर्मी समुदाय के नेता जयराम महतो ने चुनाव से पहले कुछ हलचल पैदा की थी, लेकिन अब यह मुद्दा ठंडा पड़ गया है। आरजेडी, जो यादवों के आधार पर गोलबंदी करती थी, अब केवल जेएमएम पर निर्भर नजर आ रही है।
इंडिया गठबंधन "मैयां सम्मान योजना" के माध्यम से महिलाओं को लुभाने का प्रयास कर रहा है। वहीं, एनडीए ने "गोगो दीदी" और एक रुपए में जमीन रजिस्ट्री जैसी योजनाओं से महिलाओं को अपनी ओर खींचने की रणनीति बनाई है।
चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, इस बार चुनाव मैदान में 128 महिला उम्मीदवार हैं, जो 2019 (127) और 2014 (111) से अधिक है।
हालांकि, इस बार तस्वीर बदली हुई है। बाबूलाल मरांडी अब बीजेपी के साथ हैं, और चुनाव केवल एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच सीमित रह गया है। तीसरे मोर्चे का प्रभाव नाम मात्र का रह गया है।
2024 में, आरजेडी और जेडीयू केवल कुछ सीटों पर समझौते के तहत चुनाव लड़ रही हैं। आरजेडी 5 सीटों पर सिमट गई है, जबकि जेडीयू केवल 2 सीटों पर। माले भी केवल 4 सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर पाई है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बदलते समीकरणों और नए फैक्टरों के बीच कौन सी पार्टी राज्य की जनता का विश्वास जीत पाती है और झारखंड की राजनीति को किस दिशा में ले जाती है।
1. 60 बनाम 40 की बहस का अंत
झारखंड की राजनीति में "60 बनाम 40" का मुद्दा लंबे समय से केंद्र में रहा है। 60% स्थानीय और 40% बाहरी आबादी के समीकरण ने चुनावी एजेंडों को आकार दिया था। 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीयता का मुद्दा भी अक्सर राजनीति का ध्रुव रहा है।2019 में हेमंत सोरेन की वापसी ने इस मुद्दे को मजबूती दी थी, लेकिन इस बार यह चर्चा के केंद्र से गायब है। बीजेपी इस पर जोर नहीं दे पा रही, जबकि जेएमएम इस मुद्दे को लागू न कर पाने के कारण बचाव की मुद्रा में है।
2. जातीय समीकरणों का कमजोर होना
आदिवासी, कुर्मी, और यादव जातियां झारखंड की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाती रही हैं। परंतु इस बार जातीय गोलबंदी की धार कुंद पड़ चुकी है।जातीय संघर्षों की जगह आदिवासी अस्मिता और बाहरी-घुसपैठी के सवाल प्राथमिक बन गए हैं। कुर्मी समुदाय के नेता जयराम महतो ने चुनाव से पहले कुछ हलचल पैदा की थी, लेकिन अब यह मुद्दा ठंडा पड़ गया है। आरजेडी, जो यादवों के आधार पर गोलबंदी करती थी, अब केवल जेएमएम पर निर्भर नजर आ रही है।
3. महिला वोटबैंक का उदय
इस बार झारखंड की राजनीति में महिलाओं का एक स्वतंत्र और प्रभावी वोटबैंक उभरकर सामने आया है।इंडिया गठबंधन "मैयां सम्मान योजना" के माध्यम से महिलाओं को लुभाने का प्रयास कर रहा है। वहीं, एनडीए ने "गोगो दीदी" और एक रुपए में जमीन रजिस्ट्री जैसी योजनाओं से महिलाओं को अपनी ओर खींचने की रणनीति बनाई है।
चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, इस बार चुनाव मैदान में 128 महिला उम्मीदवार हैं, जो 2019 (127) और 2014 (111) से अधिक है।
4. तीसरे मोर्चे की कमजोर उपस्थिति
झारखंड की सियासत में तीसरे मोर्चे की अहम भूमिका रही है। 2005 में बाबूलाल मरांडी और अन्य दलों ने तीसरी ताकत के रूप में मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी।हालांकि, इस बार तस्वीर बदली हुई है। बाबूलाल मरांडी अब बीजेपी के साथ हैं, और चुनाव केवल एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच सीमित रह गया है। तीसरे मोर्चे का प्रभाव नाम मात्र का रह गया है।
5. बिहार की पार्टियों का प्रभाव घटा
झारखंड की राजनीति में बिहार की पार्टियों का प्रभाव पहले काफी बड़ा था। 2005 में जेडीयू और आरजेडी ने झारखंड में बड़े पैमाने पर उम्मीदवार उतारे थे।2024 में, आरजेडी और जेडीयू केवल कुछ सीटों पर समझौते के तहत चुनाव लड़ रही हैं। आरजेडी 5 सीटों पर सिमट गई है, जबकि जेडीयू केवल 2 सीटों पर। माले भी केवल 4 सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर पाई है।
निष्कर्ष
झारखंड का यह चुनाव पारंपरिक मुद्दों से हटकर नए आयामों पर केंद्रित हो गया है। स्थानीयता, जातीय समीकरण और बाहरी हस्तक्षेप जैसे मुद्दों की जगह महिला सशक्तिकरण, आदिवासी अस्मिता और घुसपैठ जैसे विषयों ने ले ली है।यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बदलते समीकरणों और नए फैक्टरों के बीच कौन सी पार्टी राज्य की जनता का विश्वास जीत पाती है और झारखंड की राजनीति को किस दिशा में ले जाती है।