सोशल डिस्टेंसिंग / जानवरों को समझ आती है एक-दूसरे से दूरी बनाने की जरूरत, मादा बंदरों पर की गई रिसर्च में सामने आया

कोरोना संकटकाल में सोशल डिस्टेसिंग को लेकर पशु-पक्षियों से सीख लेने के कई मैसेज वायरल हुए हैं। आम लोगों के साथ वैज्ञानिकों ने भी इस बात को देखा-समझा कि वाकई झुंड में रहने वाले जानवर एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखते हैं। अब इसी बात को शोधकर्ताओं ने अपनी रिसर्च से प्रमाणित भी कर दिया है। जानवर अपने शरीर को लेकर बेहद संवेदनशील होते हैं और इसी कारण वे समूह में रहकर दूसरे समूह से सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रखते हैं।

Dainik Bhaskar : May 14, 2020, 10:15 AM
टेक्सास | कोरोना संकटकाल में सोशल डिस्टेसिंग को लेकर पशु-पक्षियों से सीख लेने के कई मैसेज वायरल हुए हैं। आम लोगों के साथ वैज्ञानिकों ने भी इस बात को देखा-समझा कि वाकई झुंड में रहने वाले जानवर एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखते हैं। अब इसी बात को शोधकर्ताओं ने अपनी रिसर्च से प्रमाणित भी कर दिया है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने जानवरों में कुछ सूक्ष्म जीवाणुओं के प्रसार को कम करने के लिए जरूरी सोशल डिस्टेंसिंग के बारे में सबूत पा लिए हैं। इससे यह समझ आता है कि जानवर अपने शरीर को लेकर बेहद संवेदनशील होते हैं और इसी कारण वे समूह में रहकर दूसरे समूह से सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रखते हैं।

सूक्ष्म जीवों और बंदरों के कनेक्शन स्टडी

जर्नल एनिमल बिहेवियर में प्रकाशित यह रिसर्च स्टडी घाना में बोआबेंग और फ़िएमा गांवों के पास एक छोटे से जंगल में 45 मादा कोलोबस बंदरों पर की गई। इसमें उनकी आंतों में मौजूद पाचन क्रिया में मदद करने वाले सूक्ष्मजीवों की मौजूदगी को वैज्ञानिकों ने उनकी आनुवांशिकी, आहार, सोशल ग्रुपिंग और सोशल नेटवर्क में डिस्टेंसिंग जैसे मापदंडों पर परखा है।

आंत के सूक्ष्मजीवों की मदद ली गई

स्टडी में यह समझा गया कि आंत के अंदर पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की भूमिका क्या होती है और ये कैसे एक बंदर से दूसरे में फैलते हैं। इस स्टडी को करने वाली अमेरिका की टेक्सास यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर ईवा विकबर्ग ने बताया कि, बंदरों के बीच सोशल माइक्रोबियल ट्रांसमिशन हमें बता सकता है कि इंसानों में भी बीमारियां कैसे फैलती हैं और सोशल डिस्टेंसिंग से उन्हें दूर रखना कितना फायदेमंद है।

8 अलग-अलग सोशल ग्रुप्स में स्टडी की गई

इन समूहों में मादा बंदर ही समूह की मुखिया होती है। इसके लिए 8 अलग-अलग सोशल ग्रुप्स के बंदरों के मल से पता लगाया गया कि वास्तव में उनके शरीर में सूक्ष्मजीव कैसे पहुंचते हैं। बंदरों के पेट में मौजूद सूक्ष्मजीव (गट माइक्रोबायोम) आमाशय से शुरू होकर बड़ी आंत के आखिरी सिरे तक मौजूद होते हैं। इंसानों में भी लगभग ऐसा ही होता है।

अलग-अलग ग्रुप में सुक्ष्मजीवों में अंतर मिला

वैज्ञानिकों ने इन सोशल ग्रुप्स के बंदरों की आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच एक प्रमुख अंतर देखा। अलग-अलग समूहों के बंदर जो आबादी के सोशल नेटवर्क में ज्यादा करीब से जुड़े हुए थे, उनमें एक जैसे सूक्ष्म माइक्रोबॉयोम्स थे, जबकि इनसे दूर रहने वाले समूहों में सूक्ष्मजीव नए किस्म के थे।

पाचन में मददगार सूक्ष्मजीव 

ये ऐसे सूक्ष्मजीव थे जो पत्तियों वाले उनके आहार को पचाने में मदद करते थे। इस खोज से पता चलता है कि सूक्ष्मजीव इन बंदरों की आपस में होने वाली लड़ाई के दौरान या किसी अन्य कारण से सम्पर्क में आने के दौरान एक से दूसरे में फैल गए होंगे।

सोशल ग्रुप्स के बीच डिस्टेंसिंग भी, मित्रता भीशोधकर्ताओं का मानना है कि कोलोबस बंदरों ने जानबूझकर करीब आकर या फिर अनजाने में भी एक से दूसरे शरीर में इस तरह के सूक्ष्मजीवों को फैलाया होगा। हालांकि, टीम ने कहा कि इस प्रकार के ट्रांसमिशन से क्या सेहत को वाकई फायदा होता है, यह जांचने के लिए हम आगे रिसर्च कर रहे हैं। इससे यह भी पता चलेगा कि विभिन्न सोशल ग्रुप्स के बीच ऐसी मित्रता और डिस्टेंसिंग क्यों होती है।

मौजूदा दौर को समझने में मदद मिलेगी

शोधकर्ताओं ने कहा कि पिछले एक दशक से पेट का माइक्रोबायोम वैज्ञानिकों के ध्यान में आया है। यह माना जाता है कि एक रोगग्रस्त आंत के बिगड़े माइक्रोबायोम के कारण मोटापा, खराब प्रतिरक्षा, कमजोर परजीवी प्रतिरोध और यहां तक कि व्यवहार परिवर्तन भी हो सकता है।

प्रोफेसर ईवा कहती हैं कि इन बंदरों और हमारी मौजूदा स्थिति में समानताएं हैं, जिसमें हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि COVID 19 और भविष्य में आने वाली ऐसी ही महामारी के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग उनके संक्रमण को कैसे रोक कर सकती है।