आंखों देखी / डॉक्टरों ने जिस तरह मरीजों को संभाला, वह मिसाल बन गया, इतनी लाशें थीं कि उन्हें रखने तक की जगह नहीं बची थी

जयपुर | एसएमएस अस्पताल ये वो जगह थी, जहां धमाकों के बाद सबसे ज्यादा शोर था। लाशों, घायलों और परिजनों को तलाशने वालों की इस कदर भीड़ थी कि किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था। ऐसे में वहां मौजूद डॉक्टरों की टीम ने जिस तरह मरीजों को संभाला, वो एक मिसाल बन गया। डॉक्टर क्या, लोगों की जान बचाने में जुटा हर इंसान भगवान नजर आ रहा था। यही कारण था कि आतंकियों के नापाक मंसूबे, इंसानियत के आगे पस्त नजर आए।

Dainik Bhaskar : Dec 21, 2019, 12:48 PM
जयपुर | एसएमएस अस्पताल...ये वो जगह थी, जहां धमाकों के बाद सबसे ज्यादा शोर था। लाशों, घायलों और परिजनों को तलाशने वालों की इस कदर भीड़ थी कि किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था। ऐसे में वहां मौजूद डॉक्टरों की टीम ने जिस तरह मरीजों को संभाला, वो एक मिसाल बन गया। यही नहीं, पूरा जयपुर शहर घायलों को खून देने के लिए कतार में लग गया। उस वक्त के हालात बताते वरिष्ठ डॉक्टर।

चीख-पुकार...लाशें, खून, भीड़, ऐसा मंजर तो कभी नहीं देखा, पूरी रात सिर्फ शोर था

एसएमएस अस्पताल के उपाधीक्षक डॉ जगदीश मोदी अभी भी उस मंजर को याद कर सिहर जाते हैैं। वह बोले- अरे राम! ऐसा आलम किसी को ना दिखाए भगवान। ऐसी भयानक रात कभी नहीं देखी, जब दर्द ने अहसास करना बंद कर दिया हो। चीख-पुकार..लाशें, खून, भीड़, अफरा-तफरी। बस। यही सब कुछ था। शहर में तो धमाके होकर रह गए थे, लेकिन पूरी रात उनका शोर एसएमएस अस्पताल में मचा था। सब जुटे हुए थे। सबके सब। डॉक्टर क्या, लोगों की जान बचाने में जुटा हर इंसान भगवान नजर आ रहा था। पूरा अस्पताल प्रशासन, डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ यहां तक कि चपरासी, गार्ड आदि ऐसे मदद को हाथ आगे बढ़ा रहे थे, मानो उनके अपनों के जख्म हों। यही कारण था कि आतंकियों के नापाक मंसूबे, इंसानियत के आगे पस्त नजर आए।

मॉर्चरी में अकेला ड्यूटी पर था, 58 लाशें निकालीं... हर मिनट गिनती बढ़ रही थी

फोरेंसिक मेडिकल में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अनिल सोलंकी बोले- अजी क्या बताएं। मेरी तो रात की ड्यूटी थी। जो अक्सर काफी लंबी होती है, लेकिन उस रात के कोहराम ने ऐसा टास्क दिया कि पता ही नहीं लगा। 58 डेडबॉडी निकलवाई थीं मैंने। अकेले डॉक्टर की ड्यूटी थी मॉर्चरी में। पूरी रात जुटे रहे। हर स्टाफ को सैल्यूट है, जिसने उस हाहाकार के बीच नौकरी को सेवा की तरह लिया। एक मिनट की फुर्सत नहीं थी किसी को। इतनी लाशें, इतनी लाशें क्या बताएं, एक बार तो गिनती भूल गए। जगह नहीं थी रखने की, लेकिन हर कोई पूरी शिद्दत से जुटा था। ऊपर से हर किसी के लिए फोन। सारे प्रशासन का ध्यान डेडबॉडी और पहचान पर था। शब्द साथ नहीं दे रहे थे, बस हाथ चल रहे थे। 

अस्पताल में खून देने वालों की कतार लगी थी मानो खून नहीं पानी देना हो...

एसएमएस के एडिशनल सुपरीटेंडेंट डॉ. अजीत सिंह ने कहा- मेरे जैसे ज्यादातर डॉक्टर साथी वो थे जो अपने घर पर मरीज या दूसरे कार्यों में व्यस्त थे। फिर शहर में सीरियल बम ब्लास्ट की सूचना ने सबको हैरत में डाल दिया। फोन घनघनाना शुरू हुए। और अगले ही कुछ पल हम एसएमएस की इमरजेंसी में थे। वो मंजर अब भी आंखों में तैर जाता है। चीत्कार, भीड़ भाड़, घायल, लाशें, एंबुलेंस और चारों तरफ खून ही खून था। इस बीच अस्पताल स्टाफ की ड्यूटी तो सबसे बड़ी थी ही, लेकिन मैंने महसूस किया कि इंसानियत जिंदा हो उठी है। डॉक्टरों से भी कई ज्यादा लोग घायलों को संभाल रहे थे। और जैसे ही ब्लड कम होने की सूचना आई तो लोग खून देने के लिए ऐसे आगे आकर बता रहे थे जैसे कोई पानी की बात हो।