Vikrant Shekhawat : Sep 08, 2020, 11:41 AM
Special Desk | कोरोना का हवाला देते हुए आरएएस जैसी परीक्षा के साक्षात्कार टाल दिए हैं, लेकिन ऐसी परीक्षाएं, जिनमें हजारों विद्यार्थी बैठेंगे उन्हें नहीं स्थगित किया। आयोग ने यह सलेक्शन कर लिया कि चार—पांच बंदे यदि एक कमरे में बैठे इंटरव्यू ले तो कोरोना फैल सकता है, लेकिन यदि सैकड़ों लोग एक साथ परीक्षा की भीड़ में आएं तो ऐसा नहीं होगा। इस सलेक्शन पर पहला सवाल उठता है कि क्या आपदा वाकई में अवसर बन गई है? कोरोना भी अब सरकार के हिसाब से चलेगा। कोरोना कैसे, कब, कितना, कहां फैलेगा यह अब डब्ल्यूएचओ या आईसीएमआर की गाइडलाइन की बजाय एक सर्कुलर से जाना जा सकता है।अब आते हैं वजह पर! आरपीएससी में मौजूदा चेयरमैन के अलावा तीन मेम्बर बोर्ड में और हैं। ये सभी पिछली सरकार के खास लोग हैं। बोर्ड में कुल आठ सदस्य होने चाहिए। परन्तु अभी आधी आरपीएससी वेकेंट हैं। साक्षात्कार टाले जाने और परीक्षा करवाने के पीछे एक बड़ी वजह सामने आ रही है, जातीय दुर्भावना। बताया जा रहा है कि सरकार में राजनीतिक प्रभाव रखने वाली जातियों के समूह चाहते है कि उनकी जाति का अधिकाधिक प्रभाव आरपीएससी पर जब कायम हो जाए तभी इंटरव्यू करवाया जाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि आरपीएससी सदस्यों का चयन जाति के आधार पर होता है। महाकवि दिनकर लिख गए हैं —
'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूरपरन्तु यहां मूल जानने की जरूरत नहीं है। यह व्यवस्था कायर तो नहीं है, क्रूर कितनी है? यह पूछा जा सकता है ऐसे प्रतिभाशाली युवाओं से, जो इस जातीय विभेद का शिकार हुए और कॅरियर तबाह हो गया। सरकार यह चाहती है कि पहले बोर्ड की नियुक्तियां हो जाएं. उसके लिए तो एक आर्डर ही तो निकालना है! परन्तु पहले पंचायतों—निकायों के चुनाव हो जाएं, ताकि इन नियुक्तियों का नुकसान नहीं हो जाए। दिनकरजी का एक और कथन...।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार श्रीपाल शक्तावत लिखते हैं जब पूर्व आईएएस श्री ललित के पंवार राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष बने तो कामकाज का सलीका देख दंग रह गये। साक्षात्कार के लिए जो तरकीब निकाली गई,सारा खेल उसी में छिपा था। साक्षात्कार के लिए वर्ग वार प्रतिभागी बुलाये जाते। यानि एससी,एसटी,ओबीसी फिर जनरल। इंटरव्यू बोर्ड को दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ पता होता कि सामने बैठा अभ्यार्थी किस वर्ग से है। साक्षात्कारकर्ता अपने अपने हिसाब से खेल करते । जनरल वाले परीक्षा के नतीजे आते तो देखते रह जाते।ललित के पंवार इस खेल से हैरान थे। व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए पुलिस,प्रशासन के निष्ठावान पूर्व अधिकारियों की एक टीम बनाई गई। गन्दगी को साफ किया गया। कोडिंग सिस्टम लागू हुआ। अब साक्षात्कार का तरीका बदल गया। सभी वर्ग के प्रतिभागी एक साथ साक्षात्कार के लिए बुलाये जाने लगे। अब इंटरव्यू करने वाले के लिये ये पता करना मुश्किल होता है कि सामने वाले किस जाति/सम्प्रदाय से है? किस कैटगरी में उन्होंने आवेदन किया है। बात नीयत की है। एक ने बदनीयत के साथ प्रतिभाओं पर प्रहार किये एक ने बदलाव की नीयत से प्रतिभाओं को अवसर दिये। एक की जानी/अनजानी संतानें अफसर बन गई तो एक के बच्चे इस रेस में ही नहीं उतरे।नीयत बेहतर हो तो एससी वर्ग के ललित के पंवार जैसे अध्यक्ष जनरल/ओबीसी/एससी/एसटी सबको समान अवसर दे जाते हैं। नीयत ठीक न हो तो जाति/बिरादरी के बहाने पूरे वर्ग को ही हड़प जाते हैं। बदलाव चाहिए तो नीयत भी चाहिए। ठीक वैसी,जैसी ललित के पंवार की। वरना तो जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाला खेल है ही। दिनकर भले ही यह लिख गए कि
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाकेपाते हैं जगह से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाकेहीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीकवीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीकजब तक द्रोणाचार्य जातीय विभेद तय करता था तब तक ठीक था, लेकिन सरकार की नीति ही ऐसी हो जाए तो यह उचित नहीं। वह दिन दूर नहीं जब राजस्थान पब्लिक सलेक्शन कमीशन जब राजस्थान पपेट्स सलेक्शन आफ कास्ट बन जाए। जातियों की कठपुतलियां ही न चुनी जाए। जब जातीय कठपुतलियां इस राजस्थान में कार्यपालिका के तौर पर चुनी जाएंगी तो फिर क्या होगा, इसका अंदाजा सहज ही हो सकता है। भले ही वह किसी भी जाति की हो।
RPSC के दोहरे मापदण्डों पर सवाल उठ रहे हैं . कोरौना के बहाने साक्षात्कार टालने लेकिन परीक्षा कराने के दोहरे मापदण्डों...Posted by Shripal Shaktawat on Monday, 7 September 2020
'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूरपरन्तु यहां मूल जानने की जरूरत नहीं है। यह व्यवस्था कायर तो नहीं है, क्रूर कितनी है? यह पूछा जा सकता है ऐसे प्रतिभाशाली युवाओं से, जो इस जातीय विभेद का शिकार हुए और कॅरियर तबाह हो गया। सरकार यह चाहती है कि पहले बोर्ड की नियुक्तियां हो जाएं. उसके लिए तो एक आर्डर ही तो निकालना है! परन्तु पहले पंचायतों—निकायों के चुनाव हो जाएं, ताकि इन नियुक्तियों का नुकसान नहीं हो जाए। दिनकरजी का एक और कथन...।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार श्रीपाल शक्तावत लिखते हैं जब पूर्व आईएएस श्री ललित के पंवार राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष बने तो कामकाज का सलीका देख दंग रह गये। साक्षात्कार के लिए जो तरकीब निकाली गई,सारा खेल उसी में छिपा था। साक्षात्कार के लिए वर्ग वार प्रतिभागी बुलाये जाते। यानि एससी,एसटी,ओबीसी फिर जनरल। इंटरव्यू बोर्ड को दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ पता होता कि सामने बैठा अभ्यार्थी किस वर्ग से है। साक्षात्कारकर्ता अपने अपने हिसाब से खेल करते । जनरल वाले परीक्षा के नतीजे आते तो देखते रह जाते।ललित के पंवार इस खेल से हैरान थे। व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए पुलिस,प्रशासन के निष्ठावान पूर्व अधिकारियों की एक टीम बनाई गई। गन्दगी को साफ किया गया। कोडिंग सिस्टम लागू हुआ। अब साक्षात्कार का तरीका बदल गया। सभी वर्ग के प्रतिभागी एक साथ साक्षात्कार के लिए बुलाये जाने लगे। अब इंटरव्यू करने वाले के लिये ये पता करना मुश्किल होता है कि सामने वाले किस जाति/सम्प्रदाय से है? किस कैटगरी में उन्होंने आवेदन किया है। बात नीयत की है। एक ने बदनीयत के साथ प्रतिभाओं पर प्रहार किये एक ने बदलाव की नीयत से प्रतिभाओं को अवसर दिये। एक की जानी/अनजानी संतानें अफसर बन गई तो एक के बच्चे इस रेस में ही नहीं उतरे।नीयत बेहतर हो तो एससी वर्ग के ललित के पंवार जैसे अध्यक्ष जनरल/ओबीसी/एससी/एसटी सबको समान अवसर दे जाते हैं। नीयत ठीक न हो तो जाति/बिरादरी के बहाने पूरे वर्ग को ही हड़प जाते हैं। बदलाव चाहिए तो नीयत भी चाहिए। ठीक वैसी,जैसी ललित के पंवार की। वरना तो जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाला खेल है ही। दिनकर भले ही यह लिख गए कि
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाकेपाते हैं जगह से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाकेहीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीकवीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीकजब तक द्रोणाचार्य जातीय विभेद तय करता था तब तक ठीक था, लेकिन सरकार की नीति ही ऐसी हो जाए तो यह उचित नहीं। वह दिन दूर नहीं जब राजस्थान पब्लिक सलेक्शन कमीशन जब राजस्थान पपेट्स सलेक्शन आफ कास्ट बन जाए। जातियों की कठपुतलियां ही न चुनी जाए। जब जातीय कठपुतलियां इस राजस्थान में कार्यपालिका के तौर पर चुनी जाएंगी तो फिर क्या होगा, इसका अंदाजा सहज ही हो सकता है। भले ही वह किसी भी जाति की हो।