Vikrant Shekhawat : Mar 31, 2020, 12:15 PM
कोरोना वायरस के संकट से पूरा देश जूझ रहा है। भारत के मजदूर बीमारी की आपदा से मरने की बजाय भूख से मरने के डर से घबराए हैं। रोजगार खो चुके ये मजदूर पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर का सफर करके घरों की ओर लौट रहे हैं। कोरोना से जितने लोग मरे, उससे अधिक इस मुश्किल सफर में दम तोड़ चुके हैं। मजदूरों के इस पलायन ने सरकारों के हालातों और भरोसे की पोल खोली है।
भारत के मजदूर पलायन कर रहे हैं। जी हां! इनकी पहचान एक मजदूर की है। भारतीय की नहीं। विदेशों से फ्लाइट में बैठकर आने वाले भारतीय का ठप्पा लेकर घर लौट रहे हैं और भारत में रहने वाले मजदूर का ठप्पा लेकर पलायन को मजबूर है। विदेशों में काम करने वाले भी वहां मजदूर से कम नहीं। एक जैसा ही लेबर लॉ लागू होता होगा, मुझे नहीं पता, लेकिन यह देश यहां के गरीब मजदूरों के साथ न्याय तो नहीं कर रहा। हैरत की बात अन्याय नहीं, बल्कि इस अन्याय पर जिम्मेदारों का मौन है।
खुशी हो गम, उत्साह हो या भय! प्रत्येक अवसर को इवेंट में बदल लेने की चालाकी हमारे नेताओं में भरी पड़ी है। सामाजिक संस्थाएं भी पीछे नहीं। गरीब को भोजन खिलाने और तीन किलो चावल का प्रचार इतना कर रहे हैं, जैसे कृष्ण ने सुदामा के तीन मुट्ठी चावल खाकर उसका उद्धार कर दिया हो। शर्म करो! हिन्दुस्तान! क्या साबित करना चाहते तो फेसबुक व्हाट्सएप पर किसी लाचार की भूख शांत करने का आधार तय करके।
मैं पहले भी कह चुका यह बीमारी जो लाए, वे आनंद कर रहे हैं और जो दंश भुगत रहे हैं वे इस देश के मजदूर हैं। मजदूर हैं, इसलिए मजबूर हैं। जितने लोग देश में कोरोना से नहीं मरे उतने सड़क पर चलकर मर गए हैं। हादसों में ! पलायन नहीं करने के लिए सरकारें आह्वान कर रही है, लेकिन मजदूर का भरोसा उठ गया है। सभी तरह की सरकारों से दिल्ली, राजस्थान, यूपी, एमपी, आन्ध्र, तेलंगाना। सब जगह से रोते—बिलखते मजदूर दिन रात पैदल चलकर बॉर्डर तक पहुंचते हैं और पुलिस की लाठियां खा रहे हैं।
उत्तरप्रदेश का यह वीडियो देखिए जिसमें मजदूरों को बसों और सड़कों की तरह धोया गया है। पूरी दुनिया में यह बिरला उदाहरण है। यह अत्याचार तो सहन नहीं होना चाहिए। उस पर कलक्टर का ट्वीट देखिए कह रहे हैं अतिरिक्त सावधानी में यह हुआ है। आप काहे नहीं नहा लिए कलक्टर साहब इस कैमिकल में, वह भी परिवार समेत? लेकिन यह सवाल पूछे कौन?
सरकारें कह रही है कि किसी को नौकरी से नहीं निकाला जाएगा? कोई मजदूर रिकार्ड पर नौकरी पर नहीं होता जनाब! डेटा देखिए! दिहाड़ी मजदूरों को कौन ज्वाइनिंग लैटर देता है। कौन खाते में पेमेंट डालता है? मैं देखता हूं जयपुर में, जोधपुर में, पाली में टिफिन लेकर खड़े मजदूरों की मंडियां कई चौराहों पर आज भी लगती है जैसी गुलामों की सल्लतनत काल में लगा करती थी। मैंने एक स्टोरी की थी बहुत पहले पाली में रहते हुए। जिस दिहाड़ी मजदूर को एक दिन काम नहीं मिलता उस दिन वापस लौटते वक्त उसके साथ में रखी रोटियों के स्टील टिफिन का बोझ इतना भारी हो जाता है कि घर पहुंचकर बच्चों से नजर नहीं मिला पाता। अब न रोटियां है और न रोजगार। मजदूर चला जा रहा हैं गंतव्य तक पहुंचेगा या नहीं? वैसे आज तक न तो मजदूर गंतव्य तक पहुंच पाया है और न न्याय के दरवाजे तक। उसे तो यह भी पता नहीं कि गंतव्य क्या है?