Vikrant Shekhawat : Sep 12, 2021, 05:40 AM
भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी व्रत का अपना अलग महत्व है. भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि के दिन संतान सप्तमी व्रत किया जाता है. इस वर्ष सोमवार, 13 सितंबर को मुक्ताभरण संतान सप्तमी व्रत किया जाएगा. यह व्रत विशेष रुप से संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति के लिए किया जाता है. इस व्रत में भगवान शिव एवं माता गौरी की पूजा का विधान होता है.
संतान सप्तमी व्रत विधिसप्तमी का व्रत माताएं अपने संतान के लिए करती हैं. इस व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का विधान है. इस व्रत में अपराह्न तक पूजा-अर्चना करने का विधान है. इस व्रत को करने वाली माता को प्रात:काल में स्नान और नित्यक्रम क्रियाओं से निवृ्त होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद सुबह भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए और सप्तमी व्रत का संकल्प लेना चाहिए.
निराहार व्रत कर, दोपहर को चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से फिर से शिव-पार्वती की पूजा करनी चाहिए. सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्ध के रुप में खीर-पूरी तथा गुड के पुए बनाये जाते है. संतान की रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को कलावा अर्पित किया जाता है तथा बाद में इसे स्वयं धारण कर व्रत कथा सुननी चाहिए.
संतान सप्तमी व्रत कथासप्तमी व्रत की कथा से संबंधिक एक पौराणिक कथा प्रचलित है. इस कथा के अनुसार एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे. मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए उन्हें ‘संतान सप्तमी’ का व्रत करने को कहा था.
लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रत कथा सुनाते हैं. कथा इस प्रकार है- नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था. उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था. उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था. उसकी पत्नी का नाम रूपवती था. रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था. एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं. वहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं. उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया, तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि के बारे में पूछा.
उन स्त्रियों में से एक ने बताया- यह व्रत संतान देने वाला है. उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प किया और शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया. किन्तु घर पहुंचने पर वे संकल्प को भूल गईं. फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं.
कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं. चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया. इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था. भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ. इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया.
व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रहीं. भूषणा ने व्रत को याद रखा था इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया. रानी ईश्वरी के पुत्रशोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई. उसे देखते ही रानी के मन में ईर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया. किन्तु वह बालकों का बाल भी बांका न कर सकी. उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताईं और फिर क्षमा याचना करके उससे पूछा- आखिर तुम्हारे बच्चे मरे क्यों नहीं. भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई और कहा कि उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मार सकीं. यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा तब व्रत के प्रभाव से रानी गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया. उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है.
संतान सप्तमी व्रत पूजन विधिसंतान सप्तमी के दिन माताएं सुबह स्नान कर भगवान शिव और मां पार्वती के समक्ष व्रत करने का संकल्प लें. इस दिन निराहार रहते हुए शुद्धता के साथ पूजन का प्रसाद तैयार कर लें. इसके लिए खीर-पूरी व गुड़ के 7 पुए या फिर 7 मीठी पूरी भोग के लिए बनाना उत्तम माना गया है. इस व्रत की पूजा दोपहर के समय तक कर लेनी चाहिए. पूजा के लिए धरती पर चौक बनाएं उस पर चौकी रखें और शंकर पार्वती की मूर्ति स्थापित करें. इसके बाद कलश की स्थापना करें, उसमें आम के पत्तों के साथ नारियल रखें. अब आरती की थाली तैयार कर लें जिसमें हल्दी, कुमकुम, चावल, कपूर, फूल, कलावा आदि सामग्री रखें. भगवान के समक्ष दीपक जलाएं. अब 7 मीठी पूड़ी को केले के पत्ते में बांधकर उसे पूजा स्थान पर रखें और संतान की रक्षा व उन्नति के लिए प्रार्थना करते हुए भगवान शिव को कलावा अर्पित करें.
पूजा के समय सूती का डोरा या फिर चांदी की संतान सप्तमी की चूड़ी हाथ में जरूर पहननी चाहिए. यह व्रत माता और पिता दोनों के द्वारा किया जा सकता है. पूजन के बाद धूप, दीप नेवैद्य अर्पित कर संतान सप्तमी की कथा जरूर पढ़ें या सुनें और बाद में कथा की पुस्तक का भी पूजन करें. इसके बाद भगवान को भोग लगाकर व्रत खोल लें.
संतान सप्तमी व्रत विधिसप्तमी का व्रत माताएं अपने संतान के लिए करती हैं. इस व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का विधान है. इस व्रत में अपराह्न तक पूजा-अर्चना करने का विधान है. इस व्रत को करने वाली माता को प्रात:काल में स्नान और नित्यक्रम क्रियाओं से निवृ्त होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद सुबह भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए और सप्तमी व्रत का संकल्प लेना चाहिए.
निराहार व्रत कर, दोपहर को चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से फिर से शिव-पार्वती की पूजा करनी चाहिए. सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्ध के रुप में खीर-पूरी तथा गुड के पुए बनाये जाते है. संतान की रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को कलावा अर्पित किया जाता है तथा बाद में इसे स्वयं धारण कर व्रत कथा सुननी चाहिए.
संतान सप्तमी व्रत कथासप्तमी व्रत की कथा से संबंधिक एक पौराणिक कथा प्रचलित है. इस कथा के अनुसार एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे. मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए उन्हें ‘संतान सप्तमी’ का व्रत करने को कहा था.
लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रत कथा सुनाते हैं. कथा इस प्रकार है- नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था. उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था. उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था. उसकी पत्नी का नाम रूपवती था. रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था. एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं. वहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं. उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया, तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि के बारे में पूछा.
उन स्त्रियों में से एक ने बताया- यह व्रत संतान देने वाला है. उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प किया और शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया. किन्तु घर पहुंचने पर वे संकल्प को भूल गईं. फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं.
कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं. चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया. इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था. भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ. इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया.
व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रहीं. भूषणा ने व्रत को याद रखा था इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया. रानी ईश्वरी के पुत्रशोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई. उसे देखते ही रानी के मन में ईर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया. किन्तु वह बालकों का बाल भी बांका न कर सकी. उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताईं और फिर क्षमा याचना करके उससे पूछा- आखिर तुम्हारे बच्चे मरे क्यों नहीं. भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई और कहा कि उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मार सकीं. यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा तब व्रत के प्रभाव से रानी गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया. उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है.
संतान सप्तमी व्रत पूजन विधिसंतान सप्तमी के दिन माताएं सुबह स्नान कर भगवान शिव और मां पार्वती के समक्ष व्रत करने का संकल्प लें. इस दिन निराहार रहते हुए शुद्धता के साथ पूजन का प्रसाद तैयार कर लें. इसके लिए खीर-पूरी व गुड़ के 7 पुए या फिर 7 मीठी पूरी भोग के लिए बनाना उत्तम माना गया है. इस व्रत की पूजा दोपहर के समय तक कर लेनी चाहिए. पूजा के लिए धरती पर चौक बनाएं उस पर चौकी रखें और शंकर पार्वती की मूर्ति स्थापित करें. इसके बाद कलश की स्थापना करें, उसमें आम के पत्तों के साथ नारियल रखें. अब आरती की थाली तैयार कर लें जिसमें हल्दी, कुमकुम, चावल, कपूर, फूल, कलावा आदि सामग्री रखें. भगवान के समक्ष दीपक जलाएं. अब 7 मीठी पूड़ी को केले के पत्ते में बांधकर उसे पूजा स्थान पर रखें और संतान की रक्षा व उन्नति के लिए प्रार्थना करते हुए भगवान शिव को कलावा अर्पित करें.
पूजा के समय सूती का डोरा या फिर चांदी की संतान सप्तमी की चूड़ी हाथ में जरूर पहननी चाहिए. यह व्रत माता और पिता दोनों के द्वारा किया जा सकता है. पूजन के बाद धूप, दीप नेवैद्य अर्पित कर संतान सप्तमी की कथा जरूर पढ़ें या सुनें और बाद में कथा की पुस्तक का भी पूजन करें. इसके बाद भगवान को भोग लगाकर व्रत खोल लें.