Sambhal Mosque / वो आदेश जिसके बाद सर्वे के होने लगे दावे, क्या CJI की टिप्पणी भी वजह?

इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2023 के फैसले ने ज्ञानवापी विवाद में पूजा स्थल कानून-1991 की नई व्याख्या दी। अदालत ने धार्मिक स्थलों के चरित्र निर्धारण को सक्षम अदालत का अधिकार बताया। इसके आधार पर सर्वेक्षण के आदेश बढ़े। सुप्रीम कोर्ट में इस कानून की वैधता पर सुनवाई लंबित है, जो इसके भविष्य का निर्धारण करेगी।

Vikrant Shekhawat : Nov 29, 2024, 09:47 AM
Sambhal Mosque: पिछले कुछ वर्षों में, भारत में धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण से जुड़े विवाद और उनके कानूनी पहलू देशभर में चर्चा का केंद्र बने हुए हैं। वाराणसी के ज्ञानवापी परिसर से शुरू होकर यह मामला अन्य धार्मिक स्थलों जैसे धार की भोजशाला, संभल की जामा मस्जिद और अजमेर की दरगाह शरीफ तक फैल गया है। इस लेख में हम ज्ञानवापी मामले के कानूनी पहलुओं, पूजा स्थल अधिनियम-1991 की प्रासंगिकता और न्यायिक आदेशों के व्यापक प्रभाव पर चर्चा करेंगे।

पूजा स्थल अधिनियम-1991 की पृष्ठभूमि

पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम-1991 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव सरकार ने राम मंदिर आंदोलन की पृष्ठभूमि में लागू किया। इसका उद्देश्य था कि 15 अगस्त 1947 को भारत में जितने भी धार्मिक स्थल जिस स्थिति में थे, उन्हें उसी रूप में संरक्षित किया जाए। इस कानून के तहत धार्मिक स्थलों के चरित्र को बदलने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया। हालांकि, वाराणसी के ज्ञानवापी परिसर में चल रहे विवाद ने इस अधिनियम की व्याख्या को लेकर नई बहस छेड़ दी है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला और उसके प्रभाव

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिसंबर 2023 में अपने फैसले में कहा कि पूजा स्थल अधिनियम-1991 के तहत किसी धार्मिक स्थल के चरित्र का निर्धारण अदालत द्वारा किया जा सकता है। हाईकोर्ट ने माना कि ज्ञानवापी परिसर का धार्मिक चरित्र स्पष्ट करना आवश्यक है, क्योंकि यह मामला विवादित है। इस निर्णय ने निचली अदालतों को विवादित धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण का आदेश देने का कानूनी आधार प्रदान किया।

ज्ञानवापी मामला: एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण

ज्ञानवापी विवाद का इतिहास 20वीं सदी की शुरुआत से ही अदालतों में है। 1936 में मुस्लिम पक्ष ने मस्जिद को अपने अधिकार क्षेत्र में रखने की मांग की थी, जबकि 1991 में हिंदू पक्ष ने दावा किया कि ज्ञानवापी मस्जिद एक मंदिर को ध्वस्त कर बनाई गई है। यह मामला तब से विवादित है और अदालतों में लंबित है।

2022 में वाराणसी की एक अदालत ने ज्ञानवापी परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दिया, जिससे यह मामला राष्ट्रीय चर्चा का केंद्र बन गया। हिंदू पक्ष ने दावा किया कि वजूखाने में शिवलिंग पाया गया है, जबकि मुस्लिम पक्ष ने इसे फव्वारा बताया।

न्यायिक आदेशों के बढ़ते प्रभाव

हाईकोर्ट के फैसले के बाद, विभिन्न अदालतों में धार्मिक स्थलों से संबंधित याचिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। इनमें धार की भोजशाला, संभल की जामा मस्जिद और अजमेर की दरगाह शरीफ शामिल हैं। इन मामलों में अदालतों ने सर्वेक्षण के आदेश दिए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका

सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2024 में मस्जिद समिति की याचिका को ज्ञानवापी से संबंधित अन्य याचिकाओं के साथ संबद्ध कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने इस विवाद को राष्ट्रीय महत्व का विषय बना दिया। 1991 के अधिनियम की वैधता पर सुनवाई भी लंबित है, जो इस विवाद के कानूनी भविष्य को निर्धारित करेगी।

राष्ट्रीय महत्व और सामाजिक प्रभाव

ज्ञानवापी जैसे विवाद देश के दो बड़े समुदायों के बीच संवेदनशीलता का मुद्दा हैं। हाईकोर्ट ने भी अपने फैसले में इसे राष्ट्रीय महत्व का मामला बताया। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इन मामलों में निर्णय कानूनी और सामाजिक संतुलन के आधार पर हों, ताकि देश में सांप्रदायिक सद्भाव बना रहे।

भविष्य की राह

ज्ञानवापी विवाद और पूजा स्थल अधिनियम-1991 से जुड़े अन्य मामलों का समाधान केवल अदालतों पर निर्भर नहीं करता। यह आवश्यक है कि सभी पक्ष विवाद को सुलझाने में सहयोग करें और समाज में शांति बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध रहें।

निष्कर्ष

ज्ञानवापी विवाद भारत के धार्मिक, सामाजिक और कानूनी परिदृश्य को प्रभावित करने वाला एक जटिल मामला है। पूजा स्थल अधिनियम-1991 और उच्च न्यायालयों के फैसले इस बात की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं कि कानूनी प्रावधानों की व्याख्या समय और परिस्थितियों के अनुसार की जाए। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय न केवल इस विवाद का समाधान करेगा, बल्कि देश में धार्मिक स्थलों के संरक्षण और उनके चरित्र निर्धारण पर भविष्य की दिशा भी तय करेगा।