Vikrant Shekhawat : Sep 02, 2023, 08:20 AM
One Nation-One Election: पिछले कुछ सालों में कई बार ‘एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा उठा है. अब इसको लेकर केंद्र सरकार ने कमेटी बना दी है. पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद इसके अध्यक्ष होंगे. यह कमेटी ‘एक देश, एक चुनाव’ के कानूनी पहलुओं को समझेगी और आम लोगों से इस पर राय लेगी. हाल में केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने गुरुवार को X (ट्विवटर) संसद का विशेष सत्र बुलाने की जानकारी दी थी. ट्वीट के मुताबिक, 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया जाएगा. सत्र में 5 बैठकें होंगी. अब चर्चा है कि इसी विशेष सत्र के दौरान केंद्र की मोदी सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ पर बिल ला सकती है.लम्बे समय से इस मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष फायदे नुकसान गिनाता रहा है. इस मुद्दे पर साफतौर पर राजनीतिक दल बंटे हुए हैं. इस बिल के आने की चर्चा के बीच जानिए क्या है ‘एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा और इसके फायदे-नुकसान क्या हैं?क्या है ‘एक देश-एक चुनाव’ का मुद्दा?आसान भाषा में समझें तो इसके जरिए लोकसभा और राज्यों में विधानसभा चुनाव एक समय पर कराने की चर्चा है. यानी एक ही समय में दोनों चुनाव कराए जा सकेंगे. इसके लिए अलग से समय और पैसा दोनों की बचत की जा सकेगी. सत्ता पक्ष के नेताओं ने इसकी यही खूबी गिनाई है. दोनों चुनाव एक समय पर होने पर विपक्ष ने कुछ नुकसान भी गिनाए हैं. वर्तमान में, राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होते हैं. मौजूदा सरकार का पांच साल का कार्यकाल समाप्त होने के बाद या विभिन्न कारणों से इसके भंग होने पर।वन नेशन-वन इलेक्शन के फायदेनहीं रुकेंगे विकास कार्य: देश के जिस भी हिस्से में चुनाव होते हैं वहां आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है. अधिसूचना जारी होने के बाद न तो नई योजना की शुरुआत होती है और न ही कोई नियुक्ति. इसी तरह अलग-अलग समय पर देश में अधिसूचना लागू होने पर विकास कार्यों पर कुछ समय के लिए रोक लगती है. सरकार जरूरी निर्णय नहीं ले पाती. ऐसे में पूरे देश में एक समय पर चुनाव होंगे तो आचार संहित को कुछ ही समय के लिए लागू किया जाएगा. इसके बाद विकास कार्यों पर ब्रेक नहीं लगेगा.समय और पैसे दोनों की बचत: राज्य विधानसभा और लोकसभा, अलग-अलग चुनाव होने पर खर्च में बढ़ोतरी होती है. शिक्षकों से लेकर सरकारी कर्मचारियों की ड्यूटी इसमें लगाई जाती है. सरकार का अतिरिक्त पैसा खर्च होता है. अलग-अलग समय में चुनाव की प्रक्रिया के कारण इसमें खर्चा और बढ़ जाता है. अतिरिक्त खर्च होने के साथ उनकी ड्यूटी भी प्रभावित होती है. एक देश-एक चुनाव के जरिए समय और पैसे दोनों की बचत हो सकती है. सरकारी कर्मचारी बिना बाधा अपनी ड्यूटी कर पाएंगे.उदाहरण से समझें: सिर्फ एक चुनाव में कितना खर्चा होता है, इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं. लोकसभा चुनाव 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक, इस चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए. इसमें राजनीतिक दलों और भारतीय चुनाव आयोग की ओर से किया गया खर्च शामिल है. इसी तरह राज्यवार खर्चों का अंदाजा लगाएं तो आंकड़े कई गुना बढ़ जाएंगे. इसी खर्च को रोकने के लिए वन नेशन-वन बिल लाया जा सकता.चुनाव आयोग तैयार: साल 2022 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने कहा था कि चुनाव आयोग देशभर में राज्य और लोकसभा चुनाव कराने के लिए तैयार है. देश में वन नेशन, वन इलेक्शन व्यवस्था लागू करने के लिए संविधान में कई बदलाव करने होंगे. 2022 में विधि आयोग ने इस बारे में देश के राजनीतिक दलों से सलाह मांगी थी.अब वन नेशन, वन इलेक्शन के नुकसान भी जान लीजिए
विधानसभा में बदलाव: कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि नया बदलाव होता है तो यह लोकतंत्र के लिए घातक कदम साबित हो सकता है. ऐसा होने पर विधानसभा के कार्यकाल को सरकार उनकी मर्जी के विपरीत घटा या बढ़ा सकती है. इससे उनका सिस्टम प्रभावित होगा.नियमों में होगा बदलाव: एक देश, एक चुनाव को लागू करना आसान नहीं होगा. इसके लिए कानून में बदलाव भी करने होंगे. पीपुल एक्ट से लेकर संसदीय नियमों में बदलाव करने होंगे. इन बदलावों को लेकर विपक्ष कितना सपोर्ट करेगा, सरकार के लिए इससे निपटना भी बड़ी चुनौती होगी.विपक्ष को कितना घाटा: 2015 में आईडीएफसी संस्थान की स्टडी में सामने आया था कि अगर चुनाव एकसाथ होते हैं तो 77 प्रतिशत संभावना है कि मतदाता राज्य विधानसभा और लोकसभा में एक राजनीतिक दल या गठबंधन को चुनेंगे. अगर चुनाव छह महीने के अंतर पर होते हैं, तो केवल 61 प्रतिशत मतदाता एक ही पार्टी को चुनेंगे. इससे विपक्ष को आपत्ति हो सकती है.क्षेत्रीय मुद्दे हो सकते हैं नजरअंदाज: कई विश्लेषकों का मानना है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ होते हैं तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे नजरंदाज हो सकते हैं. ऐसा होता है तो क्षेत्रीय दलों में नुकसान होने की आशंका बढ़ेगी. ऐसे में वोटर्स के एक तरफा वोटिंग की आशंका रहेगी. जिससे केंद्र सरकार की पार्टी को फायदा हो सकता है.
विधानसभा में बदलाव: कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि नया बदलाव होता है तो यह लोकतंत्र के लिए घातक कदम साबित हो सकता है. ऐसा होने पर विधानसभा के कार्यकाल को सरकार उनकी मर्जी के विपरीत घटा या बढ़ा सकती है. इससे उनका सिस्टम प्रभावित होगा.नियमों में होगा बदलाव: एक देश, एक चुनाव को लागू करना आसान नहीं होगा. इसके लिए कानून में बदलाव भी करने होंगे. पीपुल एक्ट से लेकर संसदीय नियमों में बदलाव करने होंगे. इन बदलावों को लेकर विपक्ष कितना सपोर्ट करेगा, सरकार के लिए इससे निपटना भी बड़ी चुनौती होगी.विपक्ष को कितना घाटा: 2015 में आईडीएफसी संस्थान की स्टडी में सामने आया था कि अगर चुनाव एकसाथ होते हैं तो 77 प्रतिशत संभावना है कि मतदाता राज्य विधानसभा और लोकसभा में एक राजनीतिक दल या गठबंधन को चुनेंगे. अगर चुनाव छह महीने के अंतर पर होते हैं, तो केवल 61 प्रतिशत मतदाता एक ही पार्टी को चुनेंगे. इससे विपक्ष को आपत्ति हो सकती है.क्षेत्रीय मुद्दे हो सकते हैं नजरअंदाज: कई विश्लेषकों का मानना है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ होते हैं तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे नजरंदाज हो सकते हैं. ऐसा होता है तो क्षेत्रीय दलों में नुकसान होने की आशंका बढ़ेगी. ऐसे में वोटर्स के एक तरफा वोटिंग की आशंका रहेगी. जिससे केंद्र सरकार की पार्टी को फायदा हो सकता है.