- भारत,
- 20-Apr-2025 08:39 AM IST
Nishikant Dubey: भारतीय राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर खड़ी है जहां संवैधानिक संस्थाओं को लेकर दिए गए बयान देशभर में बहस का कारण बन जाते हैं। इस बार भाजपा (BJP) के वरिष्ठ सांसद निशिकांत दुबे के सुप्रीम कोर्ट और देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना को लेकर दिए गए विवादास्पद बयान ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। संसद की गरिमा और न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसे गंभीर मुद्दे अब सियासत की भट्ठी में तप रहे हैं।
विवादित टिप्पणी और उसकी पृष्ठभूमि
झारखंड के गोड्डा से सांसद निशिकांत दुबे ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि “देश में धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है।” उन्होंने यह भी कहा कि अगर कानून बनाने का काम सुप्रीम कोर्ट ही करेगा तो “संसद और विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए।”
दुबे ने संविधान के अनुच्छेद 368 और 141 का हवाला देते हुए यह तर्क दिया कि कानून बनाना संसद का कार्य है, जबकि सुप्रीम कोर्ट का काम उनकी व्याख्या करना है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर यह भी आरोप लगाया कि वह अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य कर रही है, जिससे देश अराजकता की ओर बढ़ रहा है।
LGBTQ+ अधिकारों पर टिप्पणी
अपने बयान में निशिकांत दुबे ने धारा 377 का हवाला देते हुए LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों पर भी विवादास्पद टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि “समलैंगिकता सभी धर्मों में अपराध मानी जाती है,” और सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से इसे मान्यता देकर संविधान की मर्यादा का उल्लंघन किया है।
बीजेपी का स्पष्टीकरण: ‘व्यक्तिगत राय’
जैसे ही यह बयान सामने आया, राजनीतिक हलकों में भूचाल आ गया। विपक्ष ने इस बयान को लोकतंत्र पर हमला बताया और बीजेपी की नीयत पर सवाल खड़े किए। वहीं बीजेपी ने भी देर नहीं लगाई खुद को इन बयानों से अलग करने में।
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने साफ किया कि सांसद निशिकांत दुबे और पूर्व उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के बयानों से पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने इन्हें नेताओं के निजी विचार करार देते हुए कहा कि बीजेपी संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान करती है।
संसद और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर बहस
यह पूरा प्रकरण एक बड़ी बहस को जन्म देता है—क्या सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रहा है? क्या न्यायपालिका द्वारा लिए गए कुछ निर्णय लोकतांत्रिक संस्थाओं के दायरे में हस्तक्षेप हैं या संवैधानिक व्याख्या का हिस्सा?
संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट न केवल कानूनों की व्याख्या करता है, बल्कि ‘कॉन्स्टीट्यूशनल मोरलिटी’ के आधार पर कुछ मामलों में सुधारात्मक कदम भी उठाता है। वहीं, जनप्रतिनिधियों का तर्क है कि चुनी हुई संस्थाएं ही कानून बनाने का प्राथमिक स्रोत होनी चाहिए।