India-Russia Relation / क्यों बेचैन है भारत-रूस की दोस्ती से NATO? US को खटक रहा मोदी का सम्मान!

तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी पहले धुर दक्षिणपंथी देश इटली गए और उसके तत्काल बाद उन्होंने रूस की यात्रा की. वहां 24 घंटे रुक कर वे ऑस्ट्रिया चले गए. प्रधानमंत्री मोदी की इस अदा से पश्चिमी देश भौंचक है. उन्हें लगता है, मोदी को कैसे घेरा जाए. क्योंकि आज की स्थिति में अमेरिका भी इतना साहस नहीं कर सकता कि वह भारत से कुट्टी कर ले. इसकी वजह है, चीन की लगातार बढ़त. चीन को रोकने के लिए उन्हें भारत की मदद चाहिए.

Vikrant Shekhawat : Jul 12, 2024, 07:57 AM
India-Russia Relation: तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी पहले धुर दक्षिणपंथी देश इटली गए और उसके तत्काल बाद उन्होंने रूस की यात्रा की. वहां 24 घंटे रुक कर वे ऑस्ट्रिया चले गए. प्रधानमंत्री मोदी की इस अदा से पश्चिमी देश भौंचक है. उन्हें लगता है, मोदी को कैसे घेरा जाए. क्योंकि आज की स्थिति में अमेरिका भी इतना साहस नहीं कर सकता कि वह भारत से कुट्टी कर ले. इसकी वजह है, चीन की लगातार बढ़त. चीन को रोकने के लिए उन्हें भारत की मदद चाहिए. भारत के चीन के साथ संबंध मैत्रीपूर्ण नहीं हैं मगर रूस और चीन के संबंध प्रगाढ़ हैं. ऐसे में भारत के प्रधानमंत्री का रूस जाना और रूस द्वारा वहां का सर्वोच्च नागरिक सम्मान- ‘ऑर्डर ऑफ सेंट एंड्रयू द एपोस्टल’ प्रदान किया गया. भारत के प्रधानमंत्री को यह पुरस्कार मिलना अमेरिका की आंखों में खटक रहा है. भारत आज एक बहुत बड़ा उपभोक्ता बाजार तो है ही हथियार खरीद भी खूब करता है. इसलिए उनको भारत का एंटी अमेरिका खेमे की तरफ मित्रता बढ़ाना बाइडेन को खटकेगा ही.

भारत से यूक्रेन युद्ध बंद करवाने की अपील

अमेरिका ने इस मित्रता में दरार डालने के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने में भारत की मदद का दांव चला है. पहले तो यूक्रेन के राष्ट्र्पति व्लादीमीर जेलेंस्की ने X प्लेटफॉर्म पर भारत के विरुद्ध अपनी कटुता दिखाई. उन्होंने अपने X हैंडल पर लिखा, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता का दुनिया के सबसे बड़े अपराधी से गले मिलना दुखद है. यह स्पष्ट संदेश है कि अमेरिका और उसके समर्थक देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रूस यात्रा से खिन्न हैं. मगर वे बार-बार यह भी कह रहे हैं कि भारत-अमेरिका संबंधों पर मोदी की इस यात्रा से कोई असर नहीं पड़ेगा. अमेरिकी राष्ट्रपति की प्रेस सचिव केरीन जीन पियरे ने कहा है कि रूस के साथ भारत की बहुत समय से दोस्ती है, हम आशा करते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पुतिन से यूक्रेन युद्ध तत्काल बंद करने को कहेंगे क्योंकि युद्ध राष्ट्रपति पुतिन ने शुरू किया है और वे ही इसे खत्म कर सकते हैं.

अमेरिका समर्थक देशों में बदहाली

रूस-यूक्रेन युद्ध अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के गले की फांस बन गया है. 25 फरवरी 2022 से शुरू हुआ युद्ध आज तक जारी है. नाटो (NATO) से मदद की आस लगाए बैठे यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की भी रूस से भिड़े हुए हैं. अमेरिका अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद न तो इस युद्ध बंद करवा पा रहा है न रूस को मुंहतोड़ जवाब दे पा रहा है. उसके सारे कूटनीतिक प्रयास फेल रहे हैं. अंकल टॉम पहली बार सांस रोक कर बैठे हैं. अमेरिका के पिछलग्गू देश भी यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की की हठ के चलते अपनी अर्थ व्यवस्था को बहुत बुरी स्थिति में ले पाए हैं. कहीं शरणार्थी समस्या है तो कहीं महंगाई और बेरोजगारी की. कनाडा की सबसे अधिक बर्बादी हुई है क्योंकि उसने यूक्रेन की मदद को खजाना खोल रखा है. नतीजा यह हुआ कि घरेलू मोर्चे पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अब तक के सबसे नाकारा प्रधानमंत्री साबित हुए हैं.

भारत ने प्रतिबंधों को नहीं माना

अमेरिका ने रूस पर हर तरह के प्रतिबंध लगाए किंतु कोई फायदा नहीं हुआ. उलटे रूस को चीन का साथ मिल गया. ईरान का साथ मिला और सउदी अरब अमेरिका से दूर होता गया. भारत ने अपनी निर्गुट विदेश नीति के तहत रूस और अमेरिका से मित्रता के समान दूरी वाले संबंध रखे. इसलिए उसने अमेरिकी प्रतिबंधों को नहीं स्वीकार किया. इसका लाभ भारत को मिला. उसे रूस से कम दामों पर कच्चा तेल मिला, जिसे रिफाइन कर उसने योरोपीय देशों को महंगे दामों पर बेचा. इसका असर कुछ योरोपीय देशों पर ऐसा पड़ा कि उन्होंने प्रतिबंधों को दरकिनार कर दिया. योरोपीय संघ, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, नार्वे, जापान आदि देशों ने इन प्रतिबंधों का पालन किया. ये देश रूस से 2014 से नाराज़ थे, जब उस वर्ष फरवरी में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था. उसी साल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने रूस पर कुछ अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए. इससे रूस की मुद्रा रूबल को इन प्रतिबंधों के चलते बहुत नुकसान हुआ.

युद्ध रोकने की पहल कौन करे

क्रीमिया पर रूस के कब्जे से यूक्रेन को बहुत झटका लगा था, इसलिए तब से ही वह अमेरिकी समर्थक देशों के संगठन नाटो (NATO) में घुसने को बेचैन था. रूस पूर्व सोवियत देश और अपनी सीमा से लगे यूक्रेन को नाटो में नहीं जाने देने के लिए कमर कसे था. यूं भी यूक्रेन की 35 प्रतिशत आबादी रूसी है. खुद जेलेंस्की भी रूसी मूल के हैं. दोनों देशों में धर्म और संस्कृति भी समान है, फर्क बस राज सत्ता का है. इसीलिए करीब ढाई वर्ष पहले रूस ने यूक्रेन को सबक सिखाने की ठानी. तब से दोनों के बीच युद्ध चल रहा है. सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. हजारों बिल्डिंगें ढही हैं और कोई भी अपनी जिद से पीछे नहीं हट रहा. एक के लिए मूंछ का सवाल है तो दूसरे के पीछे अमेरिका की शह. युद्ध इतना लंबा खिंचता जा रहा है कि पश्चिमी देश बदहाल हो चुके हैं. वे चाहते हैं युद्ध तत्काल रुके. किंतु सवाल है पहल कौन करे.

बाइडेन के गले की फांस है युद्ध

रूस के साथ चीन है और अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन सीधे पुतिन से बात करेंगे नहीं. यही कारण है कि कई योरोपीय देश अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद रूस से व्यापार के दरवाजे खोल रहे हैं. ऐसे में सबसे अधिक बेचैनी अमेरिका में हो रही है. इसी वर्ष नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव हैं. युद्ध न रुकवा पाए तो जो बाइडेन के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी. सबसे बेहतर रास्ता भारत के माध्यम से रूस को युद्ध रोकने के लिए प्रेरित करना. दो बातें हैं, एक तरफ तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दक्षिणपंथी देश इटली से मधुर संबंध हैं और यूनाइटेड किंगडम के नए प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर भी भारत समर्थक हैं. भले उनकी लेबर पार्टी का स्टैंड प्रो पाकिस्तान रहा हो किंतु कीर ने पार्टी के स्टैंड को बदला है. इसके अतिरिक्त नरेंद्र मोदी की पुतिन से भी बहुत अच्छे रिश्ते हैं. वे बार-बार कह चुके हैं कि आजादी के बाद से रूस हमारा सबसे भरोसेमंद देश रहा है.

भारतीयों पर रूस का गहरा असर

रूस में कुर्स्क से भारतीय मूल के विधायक डॉ. अभय कुमार सिंह कहते हैं, जब भारत को घेरने के लिए अमेरिका ने सातवां बेड़ा भेजा था, तब अकेले रूस (उस समय रूस सोवियत संघ नाम से जाना जाता था) ही भारत की मदद के लिए आया था. डॉ. अभय कुमार सिंह बिहार से मेडिकल की पढ़ाई करने कुर्स्क गए थे और फिर वहीं के हो कर रह गए. डॉ. अभय 2022 में ब्लादीमीर पुतिन की पार्टी की टिकट पर कुर्स्क से डेप्यूटेट (विधायक) चुने गए हैं. यह उनका ही असर है कि भारतीय मूल के लोग रूस के साथ हैं. यह स्थिति अकेले रूस में ही नहीं दुनिया के बाकी देशों में बसे भारतीय भी रूस को पसंद करते हैं. भारत में 75 प्रतिशत लोग रूस को भरोसेमंद दोस्त मानते हैं. यहां तक कि भाजपा और RSS में बहुत-से लोग पुतिन के समर्थक हैं. यह बड़ी विचित्र स्थिति है. भारत में किसी भी दल की सरकार बने सरकार का रुख रूस के प्रति दोस्ताना रहा है. इसकी वजह रही रूस का भारत के प्रति लचीला रुख.

अनुचित दबाव कोई हल नहीं

यही कारण है कि पेंटागन के अधिकारी भारत पर यह युद्ध रुकवाने का दबाव बना रहे. इसके पीछे उनका मकसद भारत और रूस के रिश्तों में खटास पैदा करना भी है. भारत जितना अधिक दबाव डालेगा, उतना ही वह पुतिन को रुष्ट करेगा. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी हालिया यात्रा में भी पुतिन से कहा था कि युद्ध में बच्चों को मारा जाना सही कदम नहीं है और युद्ध की बजाय बातचीत से विवाद निपटाए जाएं. लेकिन इसके लिए रूस पर अधिक दबाव भारत भी नहीं डाल सकता. नरेंद्र मोदी भी पुतिन से कह सकते हैं मगर युद्ध को रोकना पुतिन का काम है. किसी भी रिश्ते को खत्म कर मित्र पर दबाव बनना अनुचित है. यूं भी अमरीकी खेमा खुद क्यों नहीं जेलेंस्की को युद्ध रोकने की अपील कर रहा. उलटे वह पुतिन को भड़काने वाले बयान दे रहा है. अमेरिका अपनी कूटनीति का शिकार भारत को बनाने की कोशिश में है.